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सोमवार, 11 अगस्त 2014

कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............

लगता है
सूख चुके सारे स्पंदन
हर स्रोत
हर दरिया
जो कभी बहता था
शिराओं में मोहब्बत बनकर
क्योंकि
अब बांसुरी कोई बजती ही नहीं
जिस की धुन सुन राधा मतवाली हो जाये
मन की मिटटी कभी भीजती ही नहीं
जो कोई अंकुर फूट जाए
शब्दों की वेदियों पर
अब मोहब्बत की दस्तानों का
फलसफा कोई लिखता ही नहीं
जो  एक आहुति दे
हवन पूरा कर लूं
अग्नि प्रज्वलित ही नहीं होती
क्योंकि
सीली लकड़ियाँ आँच पकडती ही नहीं
फिर समिधा हो या अग्नि की उपस्थिति
देवताओं का आह्वान या नवग्रह की पूजा
सब निरर्थक ही लगता है
क्योंकि
दरिया सूख जाये कोई बात नहीं
मगर स्रोत ही विलुप्त हो जायें
स्पंदन ज़मींदोज़ हो गए हों
तो कोई कैसे पहाड़ियों का सीना चीर दरिया बहाए
कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............

8 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

जब भी ऐसा लगता हो तब उस परम को पुकारने की घड़ी नजदीक ही है..निराशा की कोई जगह जिसने छोड़ी ही नहीं...

Unknown ने कहा…

बहुत सुंदर वाह...

कविता रावत ने कहा…


कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............
सच जिस पेड़ की जड़ें ही सूख जाय उनसे कोपलें फूटने की आस बेमानी है .....सबकी एक सी किस्मत कहाँ ...
बहुत बढ़िया गंभीर चिंतन भरी प्रस्तुति

कविता रावत ने कहा…


कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............
सच जिस पेड़ की जड़ें ही सूख जाय उनसे कोपलें फूटने की आस बेमानी है .....सबकी एक सी किस्मत कहाँ ...
बहुत बढ़िया गंभीर चिंतन भरी प्रस्तुति

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

वाह.... भीतर तक उतरती रचना

सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना............

Ankur Jain ने कहा…

गहरे भावों को बयां करती उत्तम प्रस्तुति।।।

RAJESH CHAUDHARY ने कहा…

itni udaasi .. ?