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सोमवार, 17 नवंबर 2014

क्योंकि अपराधी हो तुम..........

जो स्त्रियाँ हो जाती हैं ॠतुस्त्राव से मुक्त 
पहुंच जाती हैं मीनोपॉज की श्रेणी में 
फ़तवों से नवाज़े जाने की हो जाती हैं हकदार 

एक स्त्री में स्त्रीत्व होता है सिर्फ 
ॠतुस्त्राव से मीनोपॉज तक 
यही है उसके स्त्रीत्व की कसौटी 
जान लो आज की परिभाषा 

नहीं रहता जिनमे स्त्रीत्व जरूरी हो जाता है 
उन्हें स्त्री की श्रेणी से बाहर निकालना 
अब तुम नहीं हो हकदार समाजिक सुरक्षा की 
नहीं है तुम्हारा कोई औचित्य
इच्छा अनिच्छा या इज्जत  
नहीं रहता कोई मोल 
बन जाती हो बाकायदा महज संभोग की वो वस्तु 
जिसे नहीं चीत्कार का अधिकार 
फिर कैसे कहती हो 
ओ मीनोपॉज से मुक्त स्त्री 
हो गया तुम्हारा बलात्कार ?

आज के प्रगतिवादी युग में 
तुम्हें भी बदलना होगा 
नए मापदंडों पर खरा उतारना होगा 
स्वीकारनी होगी अपनी स्थिति 
स्वयंभू हैं हम 
हमारी तालिबानी पाठशाला के 
जहाँ फतवों पर चला करती हैं 
अब न्याय की भी देवियाँ 


क्योंकि 
अपराधी हो तुम ....... स्त्री होने की 
उससे इतर 
न तुम पहले थीं 
न हो 
न आगे होंगी 
फिर चाहे बदल जाएं 
कितने ही युग 
नहीं बदला करतीं मानसिकताएं 


स्त्रीत्व की कसौटी 
फतवों की मोहताजग़ी 
बस यही है 
आज की दानवता का आखिरी परिशिष्ट 


4 टिप्‍पणियां:

Sandeep Jaiswal ने कहा…

बेहद सुंदर रचना :)

वाणी गीत ने कहा…

भयावह है यह सोच !

गजेन्द्र कुमार पाटीदार ने कहा…

स्त्रित्व के दमन का प्रतिकारात्मक स्वर...
स्त्री मुक्ति के नव आरोह...
श्रेष्ठ कविता की शुभकामनाएं.

Anita ने कहा…

अन्यायपूर्ण स्थिति को नकारता हुआ स्वर...