ए कहाँ हो ?
देखो आज तुम्हारे शहर में
मौसम ने डेरा लगाया है
हवाएं पैगाम लिए दस्तक दे रही हैं
दरवाज़ा खोलो तो सही
घर आँगन ना महक जाए तो कहना
रजनीगंधा की खुश्बू
रूह में ना उतर जाए तो कहना
आज तुम्हारे लिए
मौसम के सारे गुलाब लेकर बहार आयी है
देखो
तुम्हारा मनपसंद काला गुलाब
याद है न कहा करते थे
ये तुम्हारे सुरमई बालों में
चाँद की चांदनी में जब चमकेगा
यूँ लगेगा जैसे नज़र का टीका लगाया हो
देखो सुर्ख पलाश
कैसे बिखरे हैं दरवाज़े पर
जिनका रंग तुम
अपनी कविताओं में उतारा करते हो
क्या आज एक नज़्म नहीं लिखोगे
फिर से उसी मोहब्बत के नाम
जिसके फूल हरसिंगार की तरह झड़ रहे हैं
देखो मोहब्बत ने
कैसा दूधिया रंग बिखेरा है
तुम्हारा आँगन भर गया है
सफ़ेद हरसिंगार से
बताओ अब और कौन सी रुत बची है
पतझड़ का मौसम बीत चुका है
और आज तो बसंत का पुनः आगमन हुआ है
तुम एक बार
बंद दरवाज़े खोलो तो सही
जानते हो न
मोहब्बत रोज़ दस्तक नहीं दिया करती !!!
4 टिप्पणियां:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-02-2015) को "कुछ गीत अधूरे रहने दो..." (चर्चा अंक-1890) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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पाश्चात्य प्रेमदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर और प्रभावी रचना॥
मोहब्बत जहां दस्तक दे उस दर के क्या कहने।
"क्या आज एक नज़्म नहीं लिखोगे
फिर से उसी मोहब्बत के नाम"
अत्यंत भावपूर्ण रचना।
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