मेरी प्यास
जब भी बनी
रेगिस्तान की दुल्हन ही बनी
हांड़ी जिस भी चूल्हे पर चढ़ी
तली टूटी ही निकली
उम्मीद के गरल से तर रहा गला
अब जरूरी तो नहीं नीलकंठ कहलवा
खुद को महिमामंडित करना
मेरा वजूद ही क्या है
जो प्यास के पैमाने बने और नपें
अस्थि कलश में छंटाक भर ही तो है मेरा वजूद
5 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30 - 04 - 2015 को चर्चा मंच चर्चा - 1961 { मौसम ने करवट बदली } में पर दिया जाएगा
धन्यवाद
प्यास को नापने का लहजा लाजवाब ....सादर
अस्थि कलश में छंटाक भर ही तो है मेरा वजूद
...सच कहा है..काश यह सब समझ पाते..बहुत प्रभावी प्रस्तुति..
लाजवाब
अति सुंदर
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