शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित " कड़ी धूप का सफ़र " मुकेश दूबे जी द्वारा लिखित उपन्यास इस पुस्तक मेले में उन्होंने पहली बार मिलने पर ही जिस आत्मीयता और प्रेम से दिया तो कैसे संभव है कोई पढ़े बिना रह सके और सही में पढ़ा तो उसी में खो गयी . किरदारों ने एक घेरा बना लिया और जब तक अंत तक नहीं पहुंची चैन नहीं लेने दिया .
'सच्चा प्रेम किसे कहते हैं' मानो उसी को परिभाषित किया गया है . लोग सच्चे प्रेम के जाने कितने अर्थ देते रहे लेकिन मुकेश दूबे जी ने बेहद सहज सरल पठनीय और प्रवाहमयी भाषा में उसे रेखांकित कर दिया . प्रेम के कितने ही रूप अक्सर पाठक पढता है और उसमे खोता रहता है कुछ ऐसा ही नशा मुकेश जी के उपन्यास में है जहाँ दो पात्र मनोज और अनुभा हैं , जहाँ प्रेम का इज़हार नहीं हुआ , इकरार नहीं हुआ मगर फिर भी उसका अस्तित्व कायम रहा , उस प्रेम ने आकार लिया अपने अपने खांचों में , अपने अपने समय के वृत्त में . एक पवित्र प्रेम की मिसाल है ये उपन्यास जहाँ प्रेम है अपनी सम्पूर्णता के साथ मगर देह हैं ही नहीं , बल्कि क्यों नहीं हैं जबकि हो सकती थीं ये प्रश्न और इसका उत्तर लेखक ने छुपा दिया है ये पाठक की सोच पर छोड़ दिया है आखिर वो वहां तक पहुँच पाता भी है या नहीं और यही उनके लेखन का कौशल है . जहाँ पानी का अथाह सागर हिलोरें मार रहा हो मगर दोनों तट फिर भी प्यासे रहने को मजबूर हों , आसान नहीं होता भरी थाली से भूखे पेट उठना और यहाँ दोनों पात्र अपनी अपनी सीमाओं में बंधे हैं फिर भी कोई शिकायत नहीं बल्कि अद्भुत प्रेम का दर्शन है . एक का त्याग और तपस्या दूजे का जीवन बन गयी जहाँ वहां भला कैसे शरीर या उसकी जरूरतें आकार ले सकती हैं . वो जो कहते हैं प्रेम आत्मिक धुनों पर नर्तन करता है और कैसे तो उन्हें ये उपन्यास पढना चाहिए और जानना चाहिए कैसे धरती और आकाश हमेशा साथ साथ होते हुए भी एक दूसरे से एक निश्चित दूरी पर रहकर भी अपनी प्यास बुझाते हैं , कैसे नदी के दो पाट बीच में बहते नदी के पानी को अपने मिलन का माध्यम बनाते हैं .
कहानी एक सजह प्रवाह में लिखी गयी है , कहीं कोई अतिश्योक्ति नहीं , कहीं भावनाओं से खिलवाड़ नहीं , कहीं बेवजह दृश्यों को ठूंसा नहीं गया . सीढ़ी सपाट सड़क हो और कोई मुसाफिर जिसे पता हो उसकी मंजिल बस चलता चला जा रहा हो ऐसा है कहानी का आवरण , पाठक उस प्रवाह में ऐसा बहता है कि एक बार पढना शुरू करता है तो अंत तक पहुँचने की उत्सुकता बनी रहती है और अंत पढ़कर लगता है , हाँ , यही तो एक इंसान को ज़िन्दगी में चाहिए होता है , हाँ , यही तो प्रेम की पराकाष्ठा होती है जहाँ अपने लिए कुछ चाह नहीं बस प्रेमी के लिए , उसके जीवन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर देना और फिर भी रिश्ते को कोई नाम न देना यानि ये बताना रिश्ते किसी नाम के मोहताज नहीं होते , जहाँ प्रेम हो , विश्वास हो वहां उन रिश्तों को नाम दो न दो वो अपनी पहचान खुद बन जाते हैं और सबसे बड़ी बात प्रेम करने वाले कब दुनिया की , समाज की परवाह किया करते हैं वो सिर्फ अपने प्रेमी के सुकून में अपना सुकून पाया करते हैं , उसकी मुस्कराहट में खुद मुस्कुराया करते हैं और ऐसे ही प्रेमी युगल थे अनुभा और मनोज जो एक अरसे बाद मिले तो पता चला दोनों को कि ज़िन्दगी कैसे छलती रही और जब उम्र गुजरने पर प्रेम की स्वीकारोक्ति हुई या कहो मिलन हुआ तब जाकर उसने आकार ग्रहण किया तो वो भी चाँद में दाग सरीखा या कहो जब ज़माने की तमाम मुश्किलें हल हो चुकी तब प्रेम की असल परीक्षा शुरू हुई और उस पर खरा उतरने को अनु का त्याग और बलिदान प्रशंसनीय होने के साथ प्रेम की उच्चता को दर्शाता है और शायद यही होती है प्रेम की असली परिभाषा . एक अकथ कहानी प्रेम की जिसका रस ऐसा बस भीगे जाओ , कसमसाए जाओ और हल भी कोई दूजा न मिले . प्रेमी की सेहत और ज़िन्दगी के लिए कभी एक न होने का त्याग आसान नहीं होता वो भी उस मोड़ पर जब आप अचानक मिले हों और साथ रहने लगे हों फिर भी एक निश्चित दूरी बनाए रखी जाए सिर्फ उसकी सेहत ,उसकी ज़िन्दगी के लिए वर्ना मौत का फरमान तो हर वक्त उसके संग संग डोला करता है क्या कहेंगे ऐसे प्रेम को जहाँ अनिश्चितता के बादल हर पल मंडरा रहे हों और प्रेमी उन्ही बादलों के मध्य घूँट घूँट प्रेम की मदिरा पी रहे हों ,प्रेम रस में भीग रहे हों मगर फिर छलक न रहे हों ...... प्रेम त्याग समर्पण का अद्भुत चित्रण है कड़ी धूप का सफ़र जिसमे शीतल छाँव भी प्रेम है और कड़ी धूप भी ............एक फासलों से गुजरती आहट संग उम्र का सफ़र तय करना ही नियति बन गयी हो मगर फिर भी कोई प्यास न हो , हर प्यास बुझ गयी हो और क्या होगी प्रेम की इससे बेहतर परिणति . हाँ , यही है प्रेम कड़ी धूप में शीतल छाया सा , प्यास के आलिंगन में पूर्ण तृप्त सा , एक मीठे अहसास में एक कसक बन समाया सा और जब ऐसे अहसास समाये हों तो जरूरत नहीं होती किसी शिल्प या बिम्ब की न ही भाषा के सौन्दर्य की , एक प्रवाहमयी शैली ही काफी होती है और लिखा जा सकता है इस तरह भी प्रेमग्रंथ .
मुकेश जी ने ये उपन्यास अपनी बीमारी के दौरान लिखा जब वो अस्पताल में थे तब तीन उपन्यास लिखे जिनमे से ये पहला मैंने कल ही पढ़ा और पढ़कर कहीं से नहीं लगा कि पहला होगा . जाने कौन सी शक्ति से संचालित हुए जो अस्पताल के माहौल में बैठकर तीन उपन्यास लिख दिए वर्ना तो इंसान बीमारी से ही परेशान रहता है ,शायद थी कोई अन्दर एक कसक जो उस समय मुखरित हो उठी और मुकेश जी उसे कलमबद्ध करने को मजबूर हो गए . मुझे पढ़कर जैसा लगा वैसा मैंने अपनी पाठकीय दृष्टि से लिख दिया .मुकेश जी को उपन्यास के लिए ढेरों बधाइयाँ और आगे के लिए शुभकामनाएं उनकी लेखन यात्रा निर्बाध गति से चलती रहे .
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