इश्क का लबालब भरा प्याला था जब
उमंगों की पायल अक्सर छनछनाया करती थी
छल्का करता था गागर से इश्क का मौसम बेपरवाह सा
मगर अब बेखुदी के शहर में लगी आग में
झुलस गयी है मेरे इश्क की गुलाबी रंगत
मातमपुर्सी को नहीं है रूह के पास कोई साजो सामान
कौन सा सवाया लगाऊँ
किस पीर फ़क़ीर से मुनादी कराऊँ
कि राज-ए-उल्फ़त में कतरा - कतरा बिखरा है जूनून मेरा
ओ बेखबर शहर के खुमार
यूँ अक्सर खुद को घटते देख रही हूँ मैं ...........
3 टिप्पणियां:
अनमोल पोस्ट
आपका ब्लाग हमारे ब्लॉग संकलक पर संकलित किया गया है। अापसे अनुरोध है कि एक बार हमारे ब्लॉग संकलक पर अवश्य पधारे। आपके सुझाव व शिकायत अामंत्रित हैं।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-12-2015) को ""सांता क्यूं हो उदास आज" (चर्चा अंक-2201) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ओ बेखबर शहर के खुमार
यूँ अक्सर खुद को घटते देख रही हूँ मैं ...
vaah ! bahut sundar.
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