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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

बेखुदी के शहर में

इश्क का लबालब भरा प्याला था जब
उमंगों की पायल अक्सर छनछनाया करती थी
छल्का करता था गागर से इश्क का मौसम बेपरवाह सा

मगर अब बेखुदी के शहर में लगी आग में
झुलस गयी है मेरे इश्क की गुलाबी रंगत
मातमपुर्सी को नहीं है रूह के पास कोई साजो सामान

कौन सा सवाया लगाऊँ
किस पीर फ़क़ीर से मुनादी कराऊँ
कि राज-ए-उल्फ़त में कतरा - कतरा बिखरा है जूनून मेरा

ओ बेखबर शहर के खुमार
यूँ अक्सर खुद को घटते देख रही हूँ मैं ...........

3 टिप्‍पणियां:

farruq ने कहा…

अनमोल पोस्‍ट

आपका ब्‍लाग हमारे ब्‍लॉग संकलक पर संकलित किया गया है। अापसे अनुरोध है कि एक बार हमारे ब्‍लॉग संकलक पर अवश्‍य पधारे। आपके सुझाव व शिकायत अामंत्रित हैं।

www.blogmetro.in

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-12-2015) को ""सांता क्यूं हो उदास आज" (चर्चा अंक-2201) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Rakesh Kumar ने कहा…

ओ बेखबर शहर के खुमार
यूँ अक्सर खुद को घटते देख रही हूँ मैं ...


vaah ! bahut sundar.