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सोमवार, 27 नवंबर 2017

सच कुछ और था - मेरी नज़र से

 
सुधा ओम ढींगरा जी का कहानी संग्रह 'सच कुछ और था' मिले तो शायद २ महीने बीत गए. पढ़ भी लिया गया था बस लिख नहीं पायी क्योंकि बीच में एक महीना मैं खुद लिखने पढने से दूर रही. आज वक्त और मूड दोनों ने साथ दिया तो कलम चल निकली.

लेखिका का लेखन ही उसकी पहचान का सशक्त हस्ताक्षर है इसलिए बिना किसी भूमिका के सीधे कहानियों पर अपना दृष्टिकोण रखती हूँ.

संग्रह की पहली ही कहानी 'अनुगूंज' एक साथ कई सन्दर्भों और समस्याओं को समेटे है. जहाँ लेखिका ने अपने लेखकीय कौशल से गागर में सागर भर दिया है. ये सच है भारतियों में बाहर खासतौर से अमेरिका में बेटी ब्याहना जैसे किसी स्वप्न के सच होने जैसा है लेकिन उसके साथ अनेक प्रश्न लेखिका उठाती चलती हैं कि क्यों भारतीय उसके सुखद भविष्य को अपने स्वप्न आकाश में ही देखते हैं बिना असलियत जाने समझे वहीँ कैसे वहां रहने वाले भारतीय भी अपनी उसी सोच से मुक्त नहीं हैं फिर चाहे किसी भी देश में रहा जाए. शराबी ऐय्याश पति और पूरा घर सास ससुर सहित उनके लिए भारतीय लड़की एक नौकरानी से इतर नहीं होती. और इसी मुद्दे को आकार देते हुए गुरप्रीत को जब मार दिया जाता है तो देवरानी मनप्रीत पर दबाव बना उनके पक्ष में गवाही देने के लिए मजबूर करना और फिर मनप्रीत का सूझबूझ से काम लेते हुए सत्य का साथ देना और खुद को भी उनके चंगुल से कैसे आज़ाद करना है इस पर भी लेखिका ने बहुत कुशलता से प्रकाश डाला है. एक साथ अनेक समस्याएं और उन सबको एक सूत्र में पिरोना आसान नहीं होता लेकिन लेखिका इसमें सिद्धहस्त हैं.

'उसकी खुशबू' कहानी पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे ऐसी ही कहानी पहले भी पढ़ी हों. जैसे किसी वक्त हम जासूसी नावेल पढ़ते थे तब ऐसे ही चरित्र आकार लेते थे वहीँ रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी में जूली नामक पात्र का अपनी खुशबू से मदहोश कर देना साथ ही उसके जीवित होने पर भी संदेह होना आदि ऐसे मोड़ हैं जो कहानी को रहस्यमयी बनाते हैं. वहीँ जैसे एक तरफ लेखिका ने रहस्य की चादर बनाया है जूली को जो मानो कहना चाहती हों वो मर चुकी है और अब उसकी आत्मा अपना बदला ले रही है. जब प्रेम असफल हो जाता है तब वो हिंसक हो जाता है और हिंसक प्रेम का मानो यही रूप होता है उसको दिग्दर्शित कर रही हों. एक कहानी अपने में जाने कितने आयाम समेटे हुए है.

शीर्षक कहानी 'सच कुछ और था' प्रेम त्रिकोण के चौथे कोण का मानो एक ऐसा वर्णन है जहाँ प्रेम तो उसे नहीं कहा जायेगा बल्कि एक जिद और एक काम्प्लेक्स इंसान को कैसे बर्बाद कर देता है, पूरी कहानी उसी का फलसफा है. कैसे एक इंसान जब उम्र भर काम्प्लेक्स में जीवन व्यतीत करता है . एक कुंठाग्रस्त इंसान कैसे अपना और सबका जीवन बर्बाद करता है , उसे लेखिका ने इस तरह लिखा है लगता है जैसे उन्होंने खुद अपनी आँखों के सामने ये सब घटित होते देखा हो. सच है, जो सच दुनिया जानती है और वास्तव में जो हकीकत होती है उसमे जमीन आसमान का अंतर होता है लेकिन ये दुनिया का दस्तूर है वो उसी पर विश्वास करती है जो सामने आता है, जबकि सत्य कई बार सात पर्दों की ओट में छुपा सिसक रहा होता है.
'तलाश जारी है' कहानी में एक बार फिर भारतीयों की मानसिकता और जुगाड़ की फितरत को लेखिका ने उजागर किया है तो वहीँ अमेरिका की पुलिस की मुस्तैदी और कैसे कानून पालन किये और करवाए जाते हैं, उन पर भी बखूबी प्रकाश डाला है.

संग्रह की कहानी 'विकल्प' यूँ तो आम कहानी जैसी लगेगी लेकिन विकल्प की तलाश कहो या विकल्प लेखिका ने कहाँ से खोजा, ये सोचने का विषय है क्योंकि अक्सर होता यही है यदि पति बच्चा पैदा करने योग्य नहीं तो ज्यादातर बच्चा गोद ले लेते हैं या जोर जबरदस्ती से सम्बन्ध बनवाकर बच्चा पैदा कर दिया जाता है य फिर आजकल तो वैज्ञानिक तकनीक डेवलप हो गयी हैं आर्टिफिशल इन्सैमिनेशन तो उनका प्रयोग कर बच्चा पैदा किया जा सकता है. लेकिन यहाँ पर लेखिका ने जो विकल्प खोजा है आज तक तो ऐसा कहीं सुना नहीं, पढ़ा नहीं. हो सकता है विदेश में ऐसा होता हो. जहाँ पूरे खानदान के ही मर्द बच्चा पैदा करने में सक्षम नहीं होते यानि जेनेटिक प्रॉब्लम. जहाँ स्पर्म शरीर छोड़ते ही कमजोर पड़ने लगते हैं वहां यदि कोई स्त्री अपना बच्चा चाहे यानि खुद माँ बनना चाहे और अपनी ही वंशबेल को बढ़ाना चाहे वहां यही विकल्प बचता है कि अपने ही घर के उस मर्द से संसर्ग करे जिसमे ये समस्या न हो या कम हो और यही विकल्प यहाँ अपनाया जाता है. जो पाठक के हलक से भी जल्दी नीचे नहीं उतरता. लेकिन लेखिका एक ऐसी कंट्री में रहती हैं जहाँ सब कुछ संभव है और हो सकता है ऐसा कुछ उन्होंने देखा या सुना हो और जिसने इस तरह कहानी के रूप में आकार लिया हो क्योंकि लेखक कोई हो बेशक अपनी कल्पना से पात्रों को गढ़ता है मगर कहीं न कहीं जमीन अपना या आस पास का अनुभव ही होती है.

'काश ऐसा होता' एक संवेदनशील छोटी से कहानी अपने आप में एक बड़ा कैनवस लिए है. वृद्धावस्था खुद में एक समस्या सी आजकल दिखती है ऐसे में दो देशों की सोच और संस्कृति का फर्क लेखिका ने कहानी के माध्यम से व्यक्त किया है. जहाँ बच्चे अपने परिवारों में व्यस्त हो जाते हैं वहां बुजुर्ग उपेक्षित. ऐसे में जरूरी है जीवन में आगे बढ़ना और कहानी के माध्यम से लेखिका ने वही दर्शाया है. कैसे विदेश में दो बुजुर्ग अपने एकाकीपन को आपस में विवाह का फैसला कर दूर करते हैं वहीँ अपने देश में यदि कोई ऐसा सोचे भी तो जाने कितनी तोहमतों का शिकार हो जाए. बेशक कोई उनके एकाकीपन को समझे नहीं और उनके लिए कुछ करे भी नहीं लेकिन यदि वो यहाँ ऐसा कदम उठाये तो जैसे समाज से ही निष्कासित सा हो जाता है. यही दो देशों की सोच का फर्क इंगित होता है.

'क्यों ब्याही परदेस' एक बार फिर देश और विदेश की संस्कृति की भिन्नता के साथ वहां जाने पर जो लडकियाँ महसूस करती हैं उसका मार्मिक चित्रण है, जिस पर अक्सर ध्यान ही नहीं दिया जाता. कैसे विश्वासघात होते हैं, कैसे सब अपनी ज़िन्दगी में मस्त रहते हैं तो वहीँ खान पान, नियम कानून आदि सब का दर्शन एक पत्र के माध्यम से लेखिका कराती चलती हैं.

'और आंसू टपकते रहे' ऐसी कहानी जो या तो निचले तबके के हर चौथे घर में दिखाई पड़ेगी या फिर मजबूरी के मारे के घर में. लड़की होना जैसे गुनाह. स्त्री है तो केवल देह. बस इससे इतर उसका अस्तित्व ही नहीं. कैसे एक माँ का साया सर से उठ जाए तो बेटी का जीवन देह की दलदल में झोंक दिया जाता है उसका चित्रण है कहानी. वहीं यदि कोई समय रहते साथ दे दे तो निकल सकती हैं ये लड़कियां उस दलदल से लेकिन आज की आपाधापी वाली ज़िन्दगी में शायद इतनी मानवीय संवेदनाएं ही नहीं बचीं जो किसी और के दर्द को उस हद तक महसूस कर सकें. और यदि किसी में जागृत भी हो जाएँ तो जरूरी नहीं वक्त रहते जागृत हो सकें, फिर पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता मानो यही लेखिका कहना चाह रही हैं. अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत वाली उक्ति यहीं चरितार्थ होती है मानो लेखिका कहना चाहती हैं कि यदि तुम समाज को साफ़ सुथरा देखना चाहते हो तो जरूरी है अपने सब जरूरी कामों को पीछे कर मानवीयता के पक्ष को आगे रखना ताकि किसी का जीवन संवर सके क्योंकि पैसा ज़िन्दगी भर कमा सकते हो लेकिन किसी का जीवन बचाने के लिए जरूरी है संवेदना का होना.

बेघर सच, विषबीज और पासवर्ड ये पहले भी कहानी संग्रहों में शामिल कहानियाँ हैं जिन पर पहले ही काफी बात हो चुकी है.

कुल मिलाकर संग्रह की ग्यारह कहानियों में स्त्री जीवन, प्रेम , छल, विश्वासघात और दो देशों का तुलनात्मक अध्ययन कर लेखिका ने आज मानव जीवन की विडम्बनाओं को रेखांकित किया है कैसे मानव कहीं रहे लेकिन अपनी नेचर नहीं छोड़ता. लेखिका अपनी कहानियों में मनोवैज्ञानिक स्तर तक पहुँचती हैं और फिर पात्रों और घटनाओं के माध्यम से कहानी को न केवल आयाम देती हैं बल्कि हर विसंगति पर उनकी नज़र पड़ती है और उसकी गहरी पड़ताल करती चलती हैं और यही एक लेखक का काम होता है. बस जरूरत है हर अच्छाई और बुराई पर प्रकाश डालते चलना शायद किसी का जीवन सुधर जाए और लेखन सफल हो जाए, कहानियां पढ़ ऐसा महसूस होता है मानो यही लेखिका का असल मंतव्य है कहानी लेखन का. लेखिका बधाई की पात्र हैं. आशा है हमें आगे भी उनकी लेखनी इसी प्रकार धन्य करती रहेगी. शुभकामनाओं के साथ .....

2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

सुधा ओम ढींगरा जी की कहानी संग्रह 'सच कुछ और था -- ' की तथ्यात्मक समीक्षा प्रस्तुति हेतु धन्यवाद आपका
ढींगरा जी को कहानी संग्रह प्रकाशन की हार्दिक शुभकामनाएं

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-11-2017) को "कहलाना प्रणवीर" (चर्चा अंक-2802) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'