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शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

उसकी अंखियों से बरसती चाहत को
मैंने हर पल महसूस किया
फिर भी शब्दों के अभाव में
उसने न कभी इज़हार किया
मैं इंतज़ार करती रही उस पल का
जब चाहत को शब्द मिलेंगे
उस पल के इंतज़ार में
एक ज़माना बीत गया
अब उम्र के इस मोड़ पर
क्या तुम्हारी आंखों में
उसी चाहत की बानगी दिखेगी
अब किसका इंतज़ार है तुम्हें
इज़हार के पल कहीं बीत न जाएं
क्या अब तक शब्द जुटा नही पाये
या खामोश मोहब्बत का इज़हार
मेरी कब्र पर करना चाहते हो
देखो मुझे पता है तुम्हारी चाहत का
एक बार तो इज़हार करो
कहीं दम निकल न जाए
इसी इंतज़ार में

3 टिप्‍पणियां:

vijay kumar sappatti ने कहा…

देखो मुझे पता है तुम्हारी चाहत का
एक बार तो इज़हार करो
कहीं दम निकल न जाए
इसी इंतज़ार में


kya kahun , aapne itna accha likha hai ki shabd hi nahi hai tareef ke liye ..

ijab chahat ko shabd mileng is master line ..

badhai

सुशील छौक्कर ने कहा…

कहाँ से ले आती ये भाव। सच बहुत ही उम्दा लिखा हैं। वैसे अक्सर ऐसा होता है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

लम्हों को कब तक जोड़ोगे,

भावों को कब तक तोलोगे।

मधुरिम पल मत व्यर्थ गवाँओ,

अधरों से कब तक बोलोगे।

दिवा-स्वप्न से क्या पाओगे,

केवल मन को भरमाओगे।

कुसुमित फल बरबाद करो मत,

बीती बातें याद करो मत।।