मेरे घटते बढ़ते आकाश हो तुम
कभी पास होते हो तो
कभी कोसों दूर
तुमसे मिलने की चाह में
प्यासी है रूह मेरी
पर तुम अपने ही आकाश में
खो जाते हो
मेरे दिल के दायरों में
न सिमट पाते हो
कभी महसूस होता है
हाथ बढ़ाने पर छू लूंगी तुम्हें
तुम्हारे दिल के हर
जज़्बात को जी लूंगी मैं
पर तुम फिर भी मुझे
उतनी ही दूर नज़र आते हो
क्यूँ मैं तुम्हें छू नही पाती
तुम्हारे दिल के आँगन में
उतर नही पाती
कौन सा आकाश है तुम्हारा
जिसने तुम्हें बाँधा हुआ है
क्यूँ सदाएं मेरी
तेरे दिल पर
दस्तक नही दे पातीं
क्यूँ पास होकर भी तुम
मेरे पास नही होते
क्यूँ अपने ही आकाश में
सिमटे होते हो
इक बार इक नज़र डाल कर तो देखो
मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा
फिर एक बार
तुम्हारा आकाश
और बढ़ जाएगा
7 टिप्पणियां:
इक बार इक नज़र डाल कर तो देखो
मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा
फिर एक बार
तुम्हारा आकाश
और बढ़ जाएगा
Pyar samjhne ki nahin mahsoos karne ki baat hoti hai. bahut khoob.badhaai ho !
bahut sundar rachna. badhaai ho
क्या बात है वन्दना जी । कल्पनाओं को शब्द के माध्यम से जीवित सा कर दिया है। बहुत ही बढ़िया रचना । पूरे के पूरे सौ अंक ।
तुम्हारे दिल के हर जज्बात को जी लूंगी मैं...
प्रशंसा के शब्द नहीं रहे
..फिर भी इतना भर कहूंगा
मुझे और गूंगा बना दिया
एक ही सुनहरी आभा-सी
सब चीजों पर
छा गई.
vandana ji ,
ye hain meri pasand ki paktiyan. badhaai ho.
इक बार इक नज़र डाल कर तो देखो
मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा
फिर एक बार
तुम्हारा आकाश
और बढ़ जाएगा
वंदना जी
अभिवंदन
अच्छी अभियक्ति है.
दूरदर्शिता और संवेदना भी परिलक्षित हो रही है.
" मुझे अपने आकाश में
मिला कर तो देखो
देखना फिर
तुम्हारा आकाश न मिट पायेगा
मेरे आकाश से मिलकर
नया आकार पायेगा "
- विजय
बहुत सही और स्वाभाविक अभिव्यक्ति दी है , संवेदन शील मन की प्यास को | जैसे धरती अम्बर मिलन को तरसते रहते हैं , धरती को जुबान मिल गयी है , मगर अम्बर के दिल की कौन कहे !
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