ये कैसा है पोरुष तेरा
ये कैसा है दंभ
अबला की लुटती लाज देख
जो बहरा बन , मूक हो
नज़र चुरा चला जाए
करुण पुकार भी न
जिसका ह्रदय विदीर्ण
कर पाए
फिर ये कैसा है पोरुष तेरा
ये कैसा है दंभ
अत्याचारों की बानगी देख
असहाय , निर्दोष की
हृदयविदारक चीख सुन भी
जो सिर्फ़ तमाशाई बन जाए
दयनीय हालत देखकर भी
जिसका सीना पत्थर बन जाए
फिर ये कैसा है पोरुष तेरा
ये कैसा है दंभ
राजनीति की बिसात पर जो
चापलूसी की नीति अपनाए
अन्याय के खिलाफ जो
कभी आवाज़ न उठा पाए
नेताओं के हाथों की जो
ख़ुद कठपुतली बन जाए
फिर ये कैसा है पोरुष तेरा
ये कैसा है दंभ
पत्नी की चाहत को जो
अपना न बना पाए
उसके रूह के द्वार की कभी
किवडिया ना खडका पाए
अपने ही अभिमान में चूर
अर्धांगिनी की जगह न दे पाए
पत्नी पर ही अपने पोरुष का
जो हर पल झंडा फहराए
अपने अधिकारों का
अनुचित प्रयोग कर जाए
अपने मान की खातिर
भार्या का अपमान कर जाए
अपने झूठे दंभ की खातिर
ह्रदय विहीन बन जाए
कैसा वो पुरूष होगा
और कैसा उसका पोरुष
किस पोरुष की बात हो करते
किस दंभ में हो फंसे
जागो , उठो
एक बार इन्सान तो बन जाओ
नपुंसक जीवन को छोड़
एक बार पुरूष ही बन जाओ
एक बार पुरूष ही बन जाओ
15 टिप्पणियां:
नपुंसक जीवन को छोड़
एक बार पुरूष ही बन जाओ
सार्थक आवाह्न. वाकई कुंठित या फिर स्वार्थी पौरूष तमाशाई बन जाता है पर जब अपने पर आती है तो ---
बहुत सुन्दर
क्षमा चाहूँगा एक स्थान पर शब्द रोमन मे ही है
kivadiya = शायद किवड़िया
बहुत खुब। यतार्थ का चित्रण करती लाजवाब रचना।
सच को कहती एक बढ़िया रचना शुक्रिया
अत्याचारों की बानगी देख
असहाय , निर्दोष की
हृदयविदारक चीख सुन भी
जो सिर्फ़ तमाशाई बन जाए
दयनीय हालत देखकर भी
जिसका सीना पत्थर बन जाए
फिर ये कैसा है पोरुष तेरा
ये कैसा है दंभ
वन्दना जी,
आपने बिल्कुल सच लिखा है।एक अनुरोध है पोस्ट करने से पहले शब्दों को सही कर लिया करें तो पोस्ट और रोचक बन जाती है ।जैसे--सही शब्द है पौरुष न कि पोरुष। श
शुभकामनायें।
हेमन्त कुमार
waah,bahut hi jabardast prastutikaran
विचारोत्तेजक!
विचारोत्तेजक!
बहुत सुन्दर भावपूर्ण चित्रण । आभार ।
आह्वान गद्य-गीत बहुत बढ़िया रहा।
बधाई!
सच को बयाँ करती बेहतरीन रचना
सच को बखूबी कह दिया आपने। वैसे आजकल सच का कौन साथ देता है?....
ये कैसा है पोरुष तेरा
ये कैसा है दंभ
ये पंक्तियाँ ताना नहीं, समय की सच्चाई है.......... वंदना जी.
सच ही कहा है आपने.
पौरुषता के लक्षण तो अब वैसे भी दिखते ही कहा है. न मन से, न वचन से और न कर्म से .
सब के कर्म कायराना है.........
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर.
www.cmgupta.blogspot.com
बहुत कोंचने वाली कविता है यह । इसका असर होना ही चाहिये ।
satya wachan
नपुंसक जीवन को छोड़
एक बार पुरूष ही बन जाओ ....
आपने बिल्कुल सच लिखा है सटीक लिखा है ........... कमाल का लिखा है .........
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