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रविवार, 6 दिसंबर 2009

दबी चिंगारी को हवा मत दो............६ दिसम्बर

मरा इक शख्स था
हुए बरबाद
न जाने कितने थे


उस एक चेहरे को ढूंढती
निगाहें आज
न जाने कितनी हैं
गम का वो सूखा
ठहरा आज भी
हर इक निगाह में है
सियासत की ज़मीन
पर बिखरी
लाशें हजारों हैं


राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है


कैसे ये क़र्ज़ चुकाओगे
कैसे फिर फ़र्ज़ निभाओगे
लहू के दरिया में बही
मानवता फिर आज है


कैसे एक दिन के लिए
सियासत यूँ चमकती है
बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?

25 टिप्‍पणियां:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

. बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?

भड़के शोले फिर कैसे बुझाओगे..... बहुत सुंदर पंक्तियाँ.....

राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है

यथार्थ को उजागर करती सारगर्भित पंक्तियाँ..... जिसे आपने बहुत ही खूबसूरती से लिखा है......

सटीक , सार्थक और सुंदर कविता...........

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते ....

सच कहा है ...... दबी हुई चिंगारियों को हवा नही देनी चाहिए ........ कहीं ये पूरा चमन ही ना राख कर दें .........
लाजवाब अभिव्यक्ति ......

M VERMA ने कहा…

चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?
भडके शोलो पर रोटियाँ सेंकने वालो की कमी नहीं है. आज भी ----
रचना बहुत सुन्दर

अनिल कान्त ने कहा…

sahi baat kahi aapne .

कमलेश शर्मा ने कहा…

लाजवाब,
भड़के शोले फिर कैसे बुझाओगे.....
सार्थक, सामयिक कविता के लिए बधाई

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सियासत की ज़मीन
पर बिखरी
लाशें हजारों हैं
राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है

वैसे तो पूरी ही रचना बेनिसाल है
परन्तु इन पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया है!

अजय कुमार ने कहा…

शोले भड़कानेवाले अधिक हैं, और बुझानेवाले कम

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

khoobsoorat abhivyakti hai ji...

सुशील छौक्कर ने कहा…

सच पूछिए आज आपने कुछ अलग लिखा है। और एक सच्ची बात कही है।

बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते .

पर इन सियादत करने वालों को कौन समझाऐगा? जो बस वोट की राजनीति करते है।

बेनामी ने कहा…

vicharo ko prerit karti sundar rachana.

सदा ने कहा…

यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते ....बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना, भावमय प्रस्‍तुति ।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत शाश्वत प्रश्न उठाये हैं आपने...इनका जवाब है क्या किसी के पास??? अद्भुत पोस्ट.
नीरज

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?

bahut sateek prashn hai....dharm ke naam par khoon khraaba karwane se bhi baaz nahi aate raajneta...

achchhi rachna badhai

padmja sharma ने कहा…

वंदना जी
लिखने वाले लिख लिख के हार गए पर ' ये ' नहीं बदले . क्या कभी हम अपने प्रजातंत्र पर गुमान करेंगे?

TRIPURARI ने कहा…

हक़ीक़त की बात सरेआम कह दी !
मुबारक इस हौसले के लिए...

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

मरा इक शख्स था
हुए बर्बाद
न जाने कितने थे .....

बहुत सुंदर .......!!

मीत ने कहा…

क्या आप जानती हैं की आप कितना अच्छा लिखती हैं...
i m telling u, that u r so good...
keep it up...
MeeT

संजय भास्‍कर ने कहा…

लाजवाब,
भड़के शोले फिर कैसे बुझाओगे.....
सार्थक, सामयिक कविता के लिए बधाई

संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

निर्मला कपिला ने कहा…

बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
वन्दना बहुत सुन्दर दिन पर दिन एक से बढ कर एक रचना आ रही है बहुत खुशी होती है बधाई ऐर शुभकामनायें

Kavi Kulwant ने कहा…

जख्म जो फूलों ने दिये...
आप की यह पंक्ति पढ कर ही मै आपका कायल हो गया....

Kavi Kulwant ने कहा…

नव वर्ष
नव सृजन, नव हर्ष की,
कामना उत्कर्ष की,
सत्य का संकल्प ले
प्रात है नव वर्ष की .

कल्पना साकर कर,
नम्रता आधार कर,
भोर नव, नव रश्मियां
शक्ति का संचार कर .

ज्ञान का सम्मान कर,
आचरण निर्माण कर,
प्रेम का प्रतिदान दे
मनुज का सत्कार कर .

त्याग कर संघर्ष का,
आगमन नव वर्ष का,
खिल रही उद्यान में
ज्यों नव कली स्पर्श का .

प्रेम की धारा बहे,
लोचन न आंसू रहे,
नवल वर्ष अभिनंदन
प्रकृति का कण कण कहे .

कवि कुलवंत सिंह

Renu Sharma ने कहा…

vandanaji ,
bahut hi sateek likha hai

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

चिंगारी को हवा
दिया नही करते

बहुत सुन्दर बात!
प्रेरणा देती हुई पोस्ट के लिए बधाई!

Peeyush Yadav ने कहा…

कैफ़ी आज़मी की याद ताज़ा हो आई-

पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
के नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे,
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे,
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे,
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे,
६ दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे.


बहुत सुन्दर प्रयास है... अब आप मेरे ब्लॉग पर भी हैं...
-Peeyush
www.NaiNaveliMadhushala.com

شہروز ने कहा…

बहुत ही प्रभावित किया!!शीर्षक बेहद सारगर्भित!