मरा इक शख्स था
हुए बरबाद
न जाने कितने थे
उस एक चेहरे को ढूंढती
निगाहें आज
न जाने कितनी हैं
गम का वो सूखा
ठहरा आज भी
हर इक निगाह में है
सियासत की ज़मीन
पर बिखरी
लाशें हजारों हैं
राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है
कैसे ये क़र्ज़ चुकाओगे
कैसे फिर फ़र्ज़ निभाओगे
लहू के दरिया में बही
मानवता फिर आज है
कैसे एक दिन के लिए
सियासत यूँ चमकती है
बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?
हुए बरबाद
न जाने कितने थे
उस एक चेहरे को ढूंढती
निगाहें आज
न जाने कितनी हैं
गम का वो सूखा
ठहरा आज भी
हर इक निगाह में है
सियासत की ज़मीन
पर बिखरी
लाशें हजारों हैं
राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है
कैसे ये क़र्ज़ चुकाओगे
कैसे फिर फ़र्ज़ निभाओगे
लहू के दरिया में बही
मानवता फिर आज है
कैसे एक दिन के लिए
सियासत यूँ चमकती है
बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?
25 टिप्पणियां:
. बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?
भड़के शोले फिर कैसे बुझाओगे..... बहुत सुंदर पंक्तियाँ.....
राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है
यथार्थ को उजागर करती सारगर्भित पंक्तियाँ..... जिसे आपने बहुत ही खूबसूरती से लिखा है......
सटीक , सार्थक और सुंदर कविता...........
बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते ....
सच कहा है ...... दबी हुई चिंगारियों को हवा नही देनी चाहिए ........ कहीं ये पूरा चमन ही ना राख कर दें .........
लाजवाब अभिव्यक्ति ......
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?
भडके शोलो पर रोटियाँ सेंकने वालो की कमी नहीं है. आज भी ----
रचना बहुत सुन्दर
sahi baat kahi aapne .
लाजवाब,
भड़के शोले फिर कैसे बुझाओगे.....
सार्थक, सामयिक कविता के लिए बधाई
सियासत की ज़मीन
पर बिखरी
लाशें हजारों हैं
राम के नाम पर
राम की ज़मीन
हुई लाल है
धर्म के नाम पर
ठगी ज़िन्दगी
आज नाराज है
वैसे तो पूरी ही रचना बेनिसाल है
परन्तु इन पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया है!
शोले भड़कानेवाले अधिक हैं, और बुझानेवाले कम
khoobsoorat abhivyakti hai ji...
सच पूछिए आज आपने कुछ अलग लिखा है। और एक सच्ची बात कही है।
बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते .
पर इन सियादत करने वालों को कौन समझाऐगा? जो बस वोट की राजनीति करते है।
vicharo ko prerit karti sundar rachana.
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते ....बहुत ही सुन्दर शब्द रचना, भावमय प्रस्तुति ।
बहुत शाश्वत प्रश्न उठाये हैं आपने...इनका जवाब है क्या किसी के पास??? अद्भुत पोस्ट.
नीरज
जो भड़के
अबकी शोले
फिर कैसे बुझाओगे ?
bahut sateek prashn hai....dharm ke naam par khoon khraaba karwane se bhi baaz nahi aate raajneta...
achchhi rachna badhai
वंदना जी
लिखने वाले लिख लिख के हार गए पर ' ये ' नहीं बदले . क्या कभी हम अपने प्रजातंत्र पर गुमान करेंगे?
हक़ीक़त की बात सरेआम कह दी !
मुबारक इस हौसले के लिए...
मरा इक शख्स था
हुए बर्बाद
न जाने कितने थे .....
बहुत सुंदर .......!!
क्या आप जानती हैं की आप कितना अच्छा लिखती हैं...
i m telling u, that u r so good...
keep it up...
MeeT
लाजवाब,
भड़के शोले फिर कैसे बुझाओगे.....
सार्थक, सामयिक कविता के लिए बधाई
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बरसों से जमी
यादों की परतें
कैसे मिटाओगे
सीने में दबी
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
वन्दना बहुत सुन्दर दिन पर दिन एक से बढ कर एक रचना आ रही है बहुत खुशी होती है बधाई ऐर शुभकामनायें
जख्म जो फूलों ने दिये...
आप की यह पंक्ति पढ कर ही मै आपका कायल हो गया....
नव वर्ष
नव सृजन, नव हर्ष की,
कामना उत्कर्ष की,
सत्य का संकल्प ले
प्रात है नव वर्ष की .
कल्पना साकर कर,
नम्रता आधार कर,
भोर नव, नव रश्मियां
शक्ति का संचार कर .
ज्ञान का सम्मान कर,
आचरण निर्माण कर,
प्रेम का प्रतिदान दे
मनुज का सत्कार कर .
त्याग कर संघर्ष का,
आगमन नव वर्ष का,
खिल रही उद्यान में
ज्यों नव कली स्पर्श का .
प्रेम की धारा बहे,
लोचन न आंसू रहे,
नवल वर्ष अभिनंदन
प्रकृति का कण कण कहे .
कवि कुलवंत सिंह
vandanaji ,
bahut hi sateek likha hai
चिंगारी को हवा
दिया नही करते
बहुत सुन्दर बात!
प्रेरणा देती हुई पोस्ट के लिए बधाई!
कैफ़ी आज़मी की याद ताज़ा हो आई-
पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
के नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे,
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे,
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे,
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे,
६ दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे.
बहुत सुन्दर प्रयास है... अब आप मेरे ब्लॉग पर भी हैं...
-Peeyush
www.NaiNaveliMadhushala.com
बहुत ही प्रभावित किया!!शीर्षक बेहद सारगर्भित!
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