पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

बुधवार, 25 अगस्त 2010

"मैं" का व्यूहजाल

एक सिमटी 
दुनिया में 
जीने वाले हम
मैं, मेरा घर ,
मेरी बीवी,
मेरे बच्चे 
मैं और मेरा
के खेल में 
"मैं" की 
कठपुतली 
बन नाचते 
रहते हैं 
और तुझे 
दुनिया का 
हर उपदेश
समझा जाते हैं
देश के लिए
कुछ कर 
गुजरने की
ताकीद कर 
जाते हैं
मगर कभी 
खुद ना उस
पर चल पाते हैं
क्योंकि "मैं" के
व्यूहजाल से 
ना निकल 
पाते हैं
समाज का सशक्त 
अंग ना बन पाते हैं

22 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

"मैं" की
कठपुतली
बन नाचते
रहते हैं
लीला अपार इस 'मैं' की

Asha Joglekar ने कहा…

yah mai aur mera ka wyuhjal aisa hee hai. Jab tak isase bahar nikalte hain kuch karane kee kshamata hee jati rahatee hai.

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सटीक रचना...टू द पाईंट,

बधाई.

Sunil Kumar ने कहा…

मै के इस जाल से जो निकल गया वह आम आदमी से एक स्तर ऊपर हो जाता है सुंदर रचना बधाई

अजय कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी लगी आपकी रचना ।वाकई ’मैं’ से ऊपर उठ कर ’हम’ के बारे में सोचने की जरूरत है ।

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी कविता।

*** भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!

बेनामी ने कहा…

बहुत खूब वंदना जी ...किस विद्वान के शब्दों में ...यह "मैं" ही दोष है |

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

क्योंकि "मैं" के
व्यूहजाल से
ना निकल
पाते हैं
समाज का सशक्त
अंग ना बन पाते हैं
--
जी हाँ!
मैं का व्यूह जाल ऐसा ही होता है!
--
जो इससे निकल गया वो सँवर गया
और जो इसमें फँस गया वो बिगड़ गया!

Mithilesh dubey ने कहा…

सच बयाँ कर दी आपने इस रचना के माध्यम से ,काश कि हम "मैं" से खुद को बाहर निकाल पाते ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सही कहा है ..पर उपदेश कुशल बहुतेरे ....लोगों को कहते हैं लेकिन खुद अपने सीमित दायरे में बंधे होते हैं ..सटीक अभिव्यक्ति

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

मैं के व्युहुजाल इस बाजारवाद की दें है जो मनुष्य को समाज से काट कर रख दिया है.. इस बहुत ही संजीदा विषय पर ए़क संजीदा कविता..

मैं" की
कठपुतली
बन नाचते
रहते हैं
और तुझे
दुनिया का
हर उपदेश
समझा जाते हैं

ये पंक्तिया वास्तव में सुंदर हैं..
बहुत सुंदर !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मैं का चक्रव्यूह बड़ा अभेद्य होता है।

DR.ASHOK KUMAR ने कहा…

दीदी! ये अहृमभाव ही तो मानव की कमजोरी हैँ। अगर ये कमजोरी ना होती तो मानव मानव से प्रेम करता। और जहाँ प्रेम होता है वहाँ कुछ भी गलत हो ही नहीँ सकता हैँ। आपकी रचना अच्छे विचार प्रस्तुत करती हैँ। शुभकामनायेँ! -: VISIT MY BLOG :- जाने कैसे आती हैँ अच्छी नीँद। आप इस लेख को पढ़ने के लिए इस लिँक पर क्लिक कर सकती हैँ।

Asha Lata Saxena ने कहा…

अच्छी रचना |बधाई
आशा

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत सुंदर रचना ... आज के हालात् को बयां करते हुए...

ASHOK BAJAJ ने कहा…

मै और मेरा परिवार ,
इसी मे सिमट गया सारा संसार ;

neelima garg ने कहा…

good thoughts....

Asha Lata Saxena ने कहा…

छोटी और अच्छी रचना |बधाई
आशा

बेनामी ने कहा…

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (30/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।

सुशील ने कहा…

इस बार भी छोटे-छोटे बेल-बूटों से बुनी आपने यह कविता ...सच है वंदना जी "मैं" के व्यूह जाल से हम नहीं निकल पाते....लिखते रहें...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच है ये मैं .. झूठा अहम ही इंसान को कुछ करने नही देता ... लाजवाब रचना है ...

श्याम जुनेजा ने कहा…

THE BEST !