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रविवार, 7 नवंबर 2010

फिर क्यूँ ढूँढूँ अवलम्बन?

मै
अपने आप से
बेहद खुश
फिर किसलिये
ढूँढूँ अवलम्बन

मुझे मेरा "मै"
भटकाता नही
उसके सिवा कुछ
रास आता नही
अब बंधन 
स्वीकार नही
अब ना कोई

दीवार रही
मै अपने "मै" मे

जी लेती हूँ
शायद इसीलिये 

हँस लेती हूँ
जब जान लिया
है  खुद को
फिर क्यूँ
ढूँढूँ अवलम्बन

25 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

जब जान लिया
है खुद को
फिर क्यूँ
ढूँढूँ अवलम्बन
जिसने खुद को जान लिया है उसे अवलम्बन क्यूँ ढूढना.
सुन्दर भाव

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बेहतरीन!

वीरेंद्र रावल ने कहा…

अपने लिखा हैं तो रचना तो अच्छी ही होगी . टिप्पणिया भी खूब मिलेंगी क्योंकि परंपरा ही ऐसी हैं .आपने मै और अवलंबन का भेद कुछ स्पष्ट सा नहीं क्या . मुझे यही समझ आया की आप अवलंबन नहीं चाहती हैं .

आपने ऊपर निर्भरता ज्ञान हैं परम पिता का "मै " हैं ज्ञान हर पर अवलंबन ही तो भक्ति हैं , शायद आपको रजनीगंधा फिल्म की ये पंक्तियाँ याद रखनी चाहिए
"अधिकार ये जब से साजन का हर धड़कन पर माना मैंने
मै जब से उनके साथ बंधी ये भेद तभी जाना मैंने
कितना सुख हैं बंधन में "

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बहुत सुन्दर, स्वावलंबी भावनाओं को सुन्दर तरीके से उकेरा है आपने ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

जिसे मिला हो खुद अपना ही अवलम्बन!
क्यों माँगे वो जग से कोई आलम्बन!
--
मन में आत्मविश्वास का संचार करती हुई!
सुन्दर रचना!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

khud ko jaan lene ke baad saari guthhiyaan sulajh jati hain ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुन्दर विचार ....खुद को जान लेना ही आत्मनिर्भर बना देता है ...खुश रहने की कला आ जाती है ...किसी से कोई अप्र्क्षा नहीं रहती ....

अच्छी प्रस्तुति

अनुपमा पाठक ने कहा…

swayam ko jaan lena hi antim satya hai...
phir kaisa avlamb!
sundar!!!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर कविता।

monali ने कहा…

I wish ma mom cud understand dis as well, in dat case she wud nt force me to get married.. :D neways jokes apart.. i loved dis beautiful poem :)

संगीता पुरी ने कहा…

बढिया अभिव्‍यक्ति !!

वाणी गीत ने कहा…

अपने मैं में जी लेती हूँ ....
इसलिए ही हंस लेती हूँ ...
रश्मि जी से सहमत की जब खुद से परिचित हो जाते हैं हम तो खुश होने की वजह बन जाते हैं ..!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गज़ब ... खुद को ढूंढना बहुत मुश्किल होता है जीवन में ... और जो स्वयं को प् लेता है फिर उसे किसी सहारे की क्या जरूरत ... अछा लिखा है बहुत ही ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 09-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

मन को ढांढस देती नज़्म .....

rashmi ravija ने कहा…

मै अपने "मै" मे
जी लेती हूँ
शायद इसीलिये
हँस लेती हूँ
बस यही सच है...हँसते रहने का यही राज़ है
सुन्दर अभिव्यक्ति

Dorothy ने कहा…

खुद को ही अवलंब बनाकर जीने का संकल्प, हर परिस्थति से जूझने का हौसला देती और आत्मविश्वास का संचार कराती प्रेरणादायक अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

Dr Xitija Singh ने कहा…

बहुत खूब वंदना जी ...

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

बस जी गुरु मन्त्र सीख लिया आपने फिर कोई चिंता ही नहीं रही. बढ़िया पोस्ट.

amar jeet ने कहा…

अच्छी रचना खुद में खुद को ही तलासने की अच्छी कोशिश ..............

Avinash Chandra ने कहा…

अच्छा लगा इसे पढना

मनोज कुमार ने कहा…

जब यह सीख लिया फिर तो जग जीत लिया।

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

इसे कहते हैं सार्थक रचना। बधाई।

---------
इंटेली‍जेन्‍ट ब्‍लॉगिंग अपनाऍं, बिना वजह न चिढ़ाऍं।

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

फिर क्यों ढूंढूं अवलंबन...

गहरी संवेदनाओं से पूरित एक उत्तम रचना।

Kunwar Kusumesh ने कहा…

अच्छी कविता.