साइकिल पर
रखकर सामान
सुबह सुबह
निकल पड़ते हैं
किस्मत से लड़ने
गली गली
आवाज़ लगाते
"फोल्डिंग बनवा लो "
और फिर
कभी कभार ही
कोई मेहरबान होता है
बुलाता है
मोल भाव करता है
और बड़ा
अहसान- सा करके
काम देता है
उस पर यदि कोई
बुजुर्ग हो बनाने वाला
तो वो उसे अपनी
किस्मत मान लेता है
और सौदा कर लेता है
जिस उम्र में हड्डियाँ
ठहराव चाहती हैं
उस उम्र में परिवार का
बोझ कंधे पर उठाये
जब वो निकलता होगा
ना जाने कितनी आशाओं
की लड़ियाँ सहेजता होगा
फोल्डिंग बनाते बनाते
हर पट्टी में जैसे
सारे दिन की दिनचर्या
बुन लेता होगा
सड़क पर बैठकर
कड़ी धूप में
पसीना बहाते हुए
उसे सिर्फ मिलने वाले
पैसों से सपने खरीदने
की चाह होती है
एक वक्त की
रोटी के जुगाड़
की आस होती है
कांपते हाथों से
दिन भर में
बा-मुश्किल
दो ही फोल्डिंग
बना पाता है
उन्ही में
जीने के सपने
सजा लेता है
और ज़िन्दगी के
संघर्ष पर
विजय पा लेता है
और शाम ढलते ही
एक नयी सुबह की
आस में सपनो का
तकिया लगाकर
सो जाता है
शायद
जीना इसी का नाम है
31 टिप्पणियां:
बुजुर्गों को इस तरह भागदौड़ करते देख दुखी होता ही है मन ...मगर शायद जीवन इसी का नाम है !
अच्छी संवेदनशील कविता !
आज बदले हुए मिजाज की कविता है.. प्रेम से जीवन की तल्ख़ हकीकत की कविता... सुन्दर चित्रण किया है आपने.. बहुत बढ़िया...
वंदना जी,
वाह......क्या कहूँ इस रचना के बारे में...आजकल आप बहुत अच्छा लिख रही हैं....जहाँ तक मुझे लगता है ये आपने अपनी आँखों देखी को कविता का रूप दिया है इसमें कवि का भावुक ह्रदय सम्मिलित है .....वाह बहुत सुन्दर....शुभकामनाये|
दुनिया में ऐसी बहुत से लोग है..जिसे जितना मिल जाए उसी में गुज़ारा करना पड़ता है....जिंदगी यही कहती है..किस्मत से ज़्यादा किसी को कुछ नही मिलता है.....बढ़िया प्रसंग...धन्यवाद
बहुत संवेदनशीलता से ऐसे लोगों की दिनचर्या कह डाली जो रोज पानी पीने के लिए रोज कुआँ खोदते हैं ...बहुत सशक्त अभिव्यक्ति
vandana, bahut hi dil ko choo leni waali rachna hai . mujheyaad nahi ki tumne pahle kabhi itni human poem likhi ho .. mujhe bahut khushi hui ise padhkar , tumme kaviata ke bahut se dimensions chupe hue hai ..
badhayi
vijay
oh my my.....kya likh diya aapne aaj....dil ro dene ko chahta hai
sach, kai baar aisa manzar dekhkar dil rone ko chahta hai...bas samajh nahi aata kya kaha jaaye
ur best so far...tooooo good
जिन्दगी के संघर्ष पर विजय पा लेता है ....बहुत ही बेहतरीन शब्द रचना ।
वंदना जी सब आपकी तरह क्यूँ नहीं सोचते, तब दुनिया स्वर्ग से बढ़कर हो जाती. जिस उम्र में हड्डियां ठहराव चाहती है----- बेहद गहरी चुभती हुई पंक्तियाँ है. दर्द का एक फैलाव जिससे होके सबको गुजरना है. मगर फिर भी जीना शायद नहीं बल्कि इसी का ही नाम है.
बहुत संवेदनशील कविता ..वाकई बुजुगो को काम करते देख बहुत दुःख होता है ......लिखते रहिये ...शुभकामनाये ...मंजुला
बहुत ही सुन्दर संवेदनशीलता से भरपूर रचना !
“समीर लाल (उड़नतश्तरी) “ यह; नाम इस ब्लॉगजगत मैं किसी के तार्रुफ़ का मुहताज नहीं है . इनके अलफ़ाज़ "खुशियाँ लुटा के जीने का इस ढंग है ज़िंदगी " ही काफी है, इनके तार्रुफ़ ,,,,,,,,,,,,,
Aise hi kai buzurgo ka chehra yaad ho aaya ye kavita padh kar.. behad gehri aur sundar rachna
इसे दुर्भाग्य के सिवा क्या कहा जाए कि अपने जीवन की संध्याकाल में उन बुजुर्गों के लिए सुकून का कोई पल मयस्सर नहीं, जो अपनी बूढ़ी हड्डियों को गलाकर रोज जिंदगी से जंग लड़ रहे हैं. मन को झिझोड़ने वाली, गहन संवेदनाओं में डूबी मर्मस्पर्शी एवं भाव प्रवण रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.
दिल दिमाग को झकझोरने वाली प्रस्तुति.काश कि हम सब इस तरह से सोचते होते.
जीवन इसी का नाम ही है .... जीना और जीने की जद्दोजेहद ...
जीवन इसी का नाम ही है .... जीना और जीने की जद्दोजेहद ...
अगर ऐसी संवेदनशीलता सभी में आजाये तो शायद बूढी हड्डियों को थोडा आराम मिल जाये।
सुन्दर प्रस्तुति।
और शाम ढलते ही
एक नई सुबह की आस में
सपनों का
तकिया लगाकर
सो जाता है
शायद
जीना इसी का नाम है
सचमुच, यह भी एक प्रकार का जीना है।
बहुत सुंदर कविता।
आपकी आज की रचना में तो जीवन का पूरा फलसफा समाया हुआ है!
संवेदनशील रचना!
वंदना जी,
साईकिल पर
रखकर सामान (की जगह "रखकर सामना" लिख गया है पोस्ट में, ठीक कर लें).
कविता संवेदना के धरातल पे खरी है,अच्छी है
कठोर यथार्थ की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति!
hamari colony me bahut saare folding banane wale cycle pe dikh jate hain, par kabhi aisa socha bhi nahi, ki unko sabdo me vyakt kiya ja sakta hai...:)
suberb!! aapke kavi hriday ko salam!!
hame pata hi nahi tha ki aapke itne saare blog hain..!!
kitna sunder likhi hain .wah.
"sau me sattar aadmi filhal jab nasad hai
dil pe rakhkar haath kahiye desh kya azad hai"
hamare desh ki abadi ka bahut bada hissa subah se sham tak sirf do joon ki roti ke liye hi jindgi jhelta hai.
chahe hotel par kam karne wale naunihal hon,sadak par kam karne wali mahila ho,ya isi tarah ke kisi kam me laga sattar saal ka buzurg.
aam avaam ki peeda apki rachna me spasht jhalakti ...
yahin pahunchkar rachna sarthak hoti hai...
एक नयी सुबह की
आस में सपनो का
तकिया लगाकर
सो जाता है
यह आस ही तो है जो हमें जिन्दा रखती है
सुन्दरता से सहअनुभूति को पिरोया है आपने
एक दिन को जीत कर अगली की प्रतीक्षा को लोग रात कह देते हैं।
सुबह सुबह
निकल पड़ते हैं
किस्मत से लड़ने
गली गली
बहुत संवेदनशील रचना...
manju
बहुत बढ़िया
.....वाह बहुत सुन्दर....शुभकामनाये|
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