जब इन्सान टूटता है
तब शब्द भी खामोश
हो जाते हैं
एक कन्दरा में
दुबक जाते हैं
जहाँ सिर्फ स्याह
अंधेरों के और
कुछ नहीं होता
सब शून्य में
जाने लगता है
ज़िन्दगी से मन
उपराम होने
लगता है
कोई साया
अपना नज़र नहीं आता
जो दीखता है अपना
वो कभी अपना
होता ही नहीं
जिसके लिए उम्र
तमाम की होती है
उसे ही तुम्हारी
उम्र का लिहाज़ नहीं रहता
तुम्हारी चाहतों की
परवाह नहीं होती
तुम्हारी रोती सूजी आखें
भी उसके पाषण ह्रदय
को नहीं पिघला पातीं
पता नहीं कैसे
एक उम्र गुजार देते हैं
जहाँ कहीं अपनत्व
होता ही नहीं
सिर्फ समझौते ही
आस पास दस्तक
देते रहते हैं
उनकी खातिर
हर ख्वाहिश को
जिन्होंने ज़िन्दा
दफन किया होता है
वो ही जब
हाथ छिटक देते हैं
मन आहत हो जाता है
और भागता है
खुद से भी
कहीं कोई किरण
नज़र नहीं आती
जीने की वजह
मिटने लगती हैं
और ख़ामोशी
मन की पहरेदार
बन अन्दर की
दीवारे खोखली
करने लगती है
जो एक ठेस से
ही ढह जाती हैं
आखिर उम्र का भी
एक मुकाम होता है
कब तक भरम में जिए कोई
कभी तो ज़मींदोज़ होना
ही पड़ता है कफ़न को
तब शब्द भी खामोश
हो जाते हैं
एक कन्दरा में
दुबक जाते हैं
जहाँ सिर्फ स्याह
अंधेरों के और
कुछ नहीं होता
सब शून्य में
जाने लगता है
ज़िन्दगी से मन
उपराम होने
लगता है
कोई साया
अपना नज़र नहीं आता
जो दीखता है अपना
वो कभी अपना
होता ही नहीं
जिसके लिए उम्र
तमाम की होती है
उसे ही तुम्हारी
उम्र का लिहाज़ नहीं रहता
तुम्हारी चाहतों की
परवाह नहीं होती
तुम्हारी रोती सूजी आखें
भी उसके पाषण ह्रदय
को नहीं पिघला पातीं
पता नहीं कैसे
एक उम्र गुजार देते हैं
जहाँ कहीं अपनत्व
होता ही नहीं
सिर्फ समझौते ही
आस पास दस्तक
देते रहते हैं
उनकी खातिर
हर ख्वाहिश को
जिन्होंने ज़िन्दा
दफन किया होता है
वो ही जब
हाथ छिटक देते हैं
मन आहत हो जाता है
और भागता है
खुद से भी
कहीं कोई किरण
नज़र नहीं आती
जीने की वजह
मिटने लगती हैं
और ख़ामोशी
मन की पहरेदार
बन अन्दर की
दीवारे खोखली
करने लगती है
जो एक ठेस से
ही ढह जाती हैं
आखिर उम्र का भी
एक मुकाम होता है
कब तक भरम में जिए कोई
कभी तो ज़मींदोज़ होना
ही पड़ता है कफ़न को
16 टिप्पणियां:
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
सही है ..भ्रम में कब तक कोई जी सकता है ... अच्छी प्रस्तुति
आखिर उम्र का भी
एक मुकाम होता है
कब तक भरम में जिए कोई
कभी तो ज़मींदोज़ होना
ही पड़ता है कफ़न को ... aur phir ? to kyun bhram ... bahut hi gahri rachna
"कब तक भ्रम में जिए कोई,
कभी तो जमींदोज होना
ही पड़ता है कफ़न को"
ये कविता तो बस इतनी भी कह दी जाती तो पूर्ण होती, सब कुछ कह डाला, कम ही मिलता इतना गहरा उपसंहार कविताओं में. ये ही जीवन का प्रस्तावना हो और यही जीवन का ध्येय भी और जीवन के अंत पर कोई पश्चाताप बाकी ना हो.
जीने की वजह
मिटने लगती हैं
और ख़ामोशी
मन की पहरेदार
बन अन्दर की
दीवारे खोखली
करने लगती है
जो एक ठेस से
ही ढह जाती हैं
आखिर उम्र का भी
एक मुकाम होता है
अति संवेदनशील, शिकायतपूर्ण काव्य. शब्द हृदय से निकले हैं और तीर सा वार करने में सक्षम. भूल कभी संबंधों में होती है कभी शब्दों में और ये मानव ही है जो इन सब में सामंजस्य बैठा लेता है खुश होता है कवितायेँ लिखता है श्रेष्ठ कविताये साहित्य की धरोहर . वक्त ऐसे ही निकल जाता है शिकवे शिकायत करने में . बधाई और शुभकामनाये.
भ्रम तो बस भ्रम ही है इस पर क्या रोना, सत्य चारों ओर है दिल में इसे समोना.. सुंदर रचना !
जीवन का सिद्धांत नहीं
यही सच है,
अच्छी तरह पेश किया है आपने
लाजवाब प्रस्तुति
यही सच है, अच्छी प्रस्तुति......
आखिर उम्र का भी
एक मुकाम होता है
कब तक भरम में जिए कोई
कभी तो ज़मींदोज़ होना
ही पड़ता है कफ़न को ....सुन्दर और बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
अच्छी रचना लिखी है आपने।
भ्रम से बाहर निकल ही जाना चाहिए। पर मुश्किल होता है।
क्या बात है. सच भी है ये. ऐसा ही होता है.
टूटने में अस्तित्व स्तब्ध हो जाता है।
ख़ामोशी
मन की पहरेदार
बन अन्दर की
दीवारे खोखली
करने लगती है
जो एक ठेस से
ही ढह जाती हैं
गहन भावाभिव्यक्ति...
सादर बधाई...
सुंदर प्रस्तुति।
गहरे भाव।
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