सुना था होता है इक बचपन
जिसमे होते कुछ मस्ती के पल
पर हमने ना जाना ऐसा बचपन
कहीं ना पाया वैसा बचपन
जिसमे खेल खिलौने होते
जिसमे ख्वाब सलोने होते
यहाँ तो रात की रोटी के जुगाड़ में
दिन भर कूड़ा बीना करते हैं
तब जाकर कहीं एक वक्त की
रोटी नसीब हुआ करती है
जब किसी बच्चे को
पिता की ऊंगली पकड़
स्कूल जाते देखा करते हैं
हम भी ऐसे दृश्यों को
तरसा करते हैं
जब पार्कों में बच्चों को
कभी कबड्डी तो कभी क्रिकेट
तो कभी छिड़ी छिक्का
खेलते देखा करते हैं
हमारे अरमान भी उस
पल को जीने के
मगर जब अपनी तरफ देखा करते हैं
असलियत से वाकिफ हो जाते हैं
सब सपने सिर्फ सपने ही रह जाते हैं
कभी भिखारियों के
हत्थे चढ़ जाते हैं
वो जबरन भीख मंगाते हैं
हमें अपंग बनाते हैं
तो कभी धनाभाव में
स्कूल से नाम कटाते हैं
और बचपन में ही
ढाबों पर बर्तन धोते हैं
तो कभी गाड़ियों के शीशे
साफ़ करते हैं
तो कभी लालबत्ती पर
यूँ हम बचपन बचाओ
मुहीम की धज्जियाँ उडाया करते हैं
बाल श्रम के नारों को
किनारा दिखाया करते हैं
पेट की आग के आगे
कुछ ना दिखाई देता है
बस उस पल तो सिर्फ
हकीकत से आँख लड़ाते हैं
और किस्मत से लड़- लड़ जाते हैं
बचपन क्या होता है
कभी ये ना जान पाते हैं
जिम्मेदारियों के बोझ तले
बचपन को लाँघ
कब प्रौढ़ बन जाते हैं
ये तो उम्र ढलने पर ही
हम जान पाते हैं
सुलगती लकड़ियों की आँच पर
बचपन को भून कर खा जाते हैं
पर बचपन क्या होता है
ये ना कभी जान पाते हैं
2 टिप्पणियां:
सत्य उजागर करती आपकी इस मार्मिक रचना की जितनी प्रशंशा की जाय कम होगी...
नीरज
behad marmik rachna....
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