एक ख्वाबगाह से हकीकत तक का सफ़र
फिर किसी ख्वाबगाह के
मोड पर आकर रुक गया
मोड पर आकर रुक गया
ज्यों लम्हा गिरा किसी तबस्सुम पर
और लफ़्ज़ कोई लरज़ गया
और लफ़्ज़ कोई लरज़ गया
ये आने जाने के सफ़र मे
युग देखो बदल गया
युग देखो बदल गया
क्या आज भी तुम्हारे सिरहाने पर
धूप दस्तक देती है
धूप दस्तक देती है
क्या आज भी ओस की पहली बूँद
तुम्हारे रुखसार पर गिरती है
तुम्हारे रुखसार पर गिरती है
क्या आज भी दिनकर
तुम्हारे दीदार के बाद ही सफ़र शुरु करता है
तुम्हारे दीदार के बाद ही सफ़र शुरु करता है
देखो ना …………
मै तो कैद हूँ तुम्हारी ख्वाबगाह मे
मै तो कैद हूँ तुम्हारी ख्वाबगाह मे
बताना तो तुम्हे ही पडेगा ………
बदलते मौसम के मिज़ाज़ को
बदलते मौसम के मिज़ाज़ को
अरे रे रे ..........ये क्या
तुम तो अभी तक मोड़ मुड़े ही नहीं
तुम तो अभी तक मोड़ मुड़े ही नहीं
तो क्या युग परिवर्तन के साथ
तुम्हारे असीम निस्सीम प्रेम की
धारा ने भी प्रवाह बदला है
धारा ने भी प्रवाह बदला है
या प्रेम का बुलबुला उसी मोड़ पर
लम्हे के हाथों कैद हुआ खड़ा है
देखा कैद करने का हश्र ..........
ना सिर्फ कैदी बल्कि करने वाला भी
स्वयं कैद हो जाता है निगेहबानी करते करते
बताओ अब ............
क्या कभी जी पाए एक भी लम्हा मेरे बिन
जब तुम्हारी ख्वाबगाह का आतिथ्य
मैंने स्वीकार कर ही लिया था
मैंने स्वीकार कर ही लिया था
तो फिर क्या जरूरत थी तुम्हें रुकने की
मोड़ से ना मुड़ने की
क्या जरूरत थी लम्हों को कैद करने की
यहाँ तो देखो वक्त ने सीढियां चढ़ी ही नहीं
और तुमने भी वक्त के केशों को उलझा दिया
ना खुद की कोई सुबह हुई
ना मेरी कोई शाम हुई
ये ख्वाबगाह के सफ़र से
ख्वाबगाह के मोड़ तक ही
ख्वाबगाह के मोड़ तक ही
उम्र तमाम हुई .............
भूले बिसरे लम्हे आज भी
आसमाँ के आँचल में बिखरे पड़े हैं
हिम्मत हो तो कभी
कोई तारा तोड़ कर देखना ..............
शायद किसी रूह को पनाह मिल जाए
और उसकी मोहब्बत
लम्हों की कैद से आज़ाद हो जाये ...............
लम्हों की कैद से आज़ाद हो जाये ...............
यूँ भी हर किसी के ख्वाबगाह युगों तक सुलगते नहीं रहते
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें