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मंगलवार, 27 मार्च 2012

शायद तभी बेमौसमी बरसातों से सैलाब नहीं आया करते .......




सुना है कान्हा 
जब सब हरते  हो 
तभी हारते हो 
मगर यहाँ तो 
कभी कोई जंग छिड़ी ही नहीं
तुमने ही अपने इर्द गिर्द
ना जाने कितनी दीवारें 
खडी कर रखी हैं
कभी कहते हो 
सब धर्मों को छोड़ 
एक मेरी शरण आ जा 
मैं सब पापों से मुक्त करूंगा
तुम सब चिंताएं छोड़ दे 
तो कभी कर्मयोग में फँसाते हो
और कर्म का उपदेश देते हो
और तुम्हारी बनाई ये दीवारें ही
तुम्हारा चक्रव्यूह भेदन नहीं कर पातीं
तुम खुद भी उनमे बंध जाते हो
और जब जीव तुमसे मिलना चाहे
तो तुम इनसे बाहर नहीं आ पाते हो
क्योंकि याद आ जाते हैं उस वक्त 
तुम्हें अपनी बनाये अभेद्य दुर्ग 
एक तरफ कर्म की डोर 
दूसरी तरफ पूर्ण समर्पण
और गर गलती से कोई कर ले
तो खुद उलझन में पड़ जाते हो
और फिर उसे बीच मझधार में 
खुद से लड़ने के लिए छोड़ देते हो
एक ऐसी लडाई जो जीव की विवशताओं से भी बड़ी होती है
एक ऐसा युद्ध जिसमे समझ नहीं आता 
कहाँ जाये और कौन ?
और उसमे तुम्हारा अस्तित्व भी 
कभी कभी एक प्रश्नचिन्ह बन 
तुम्हें भी कोष्ठक में खड़ा कर देता है 
और तुम उसमे बंद हो , मूक हो 
ना बाहर आने की गुहार लगाते हो
ना अन्दर रहने को उद्यत दीखते हो 
बस किंकर्तव्य विमूढ़ से हैरान परेशान 
अपने अस्तित्व से जूझते दीखते हो
क्यों मोहन .....खुद को भी भुलावा देते हो
छलिये .........छलते छलते जीव को
तुम खुद को भी छल लेते हो 
क्योंकि मिलन को आतुर तुम भी होते हो ......उतने ही 
उफ़ ...........तुम और तुम्हारा मायाजाल 
खुद जीतकर भी हार जाते हो .......खुद से ही 
शायद तभी बेमौसमी बरसातों से सैलाब नहीं आया करते .......

21 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

खूबसूरत कविता... जीत कर हारने का बिम्ब अच्छा है... बहुत सुन्दर...

Amrita Tanmay ने कहा…

छलिये के रूप निराले..अति सुन्दर..

Amrita Tanmay ने कहा…

छलिये के रूप निराले..अति सुन्दर..

shyam gupta ने कहा…

सुन्दर व सच ही कहा है...बेमौसमी बरसात में सैलाब नहीं आया करते......
---कान्हा को नियमित भजें, उस राह पर चलें तभी सैलाब आयेगा...भक्ति का, ग्यान का, कर्म का....और कान्हा को व स्वयं को समझने के अर्थ का....सुन्दर कविता...

Kailash Sharma ने कहा…

खुद को भी भुलावा देते हो
छलिये .........छलते छलते जीव को
तुम खुद को भी छल लेते हो
क्योंकि मिलन को आतुर तुम भी होते हो ......उतने ही

........कहाँ समझ पाते हैं छलना इस छलिये की...बहुत भावमयी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति..आभार

Pratik Maheshwari ने कहा…

या तुम पूर्वजों ने ईश की बातों को गलत समझकर हम तक गलत उपदेश पहुँचाया है या फिर शायद हमारी समझ में ही कुछ कमी हो.. पर यह मायाजाल है तो जी का जंजाल ही..
एक अलग दृष्टिकोण रखती यह कविता कुछ अलग सोचने पर मजबूर ज़रूर करते है..

आभार!

shikha varshney ने कहा…

वो तो है ही छलिया उसकी माया वो ही जाने.

बेनामी ने कहा…

आपके शीर्षकों के लिए आपको बधाई देता हूँ....शीर्षक चुनने में माहिर हैं आप वंदना जी :-)

सदा ने कहा…

शब्‍द - शब्‍द में उभरते भावों के साथ उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

मैं तो कुछ कहता ही नहीं
कह चुका जो कहना था
गुण चुका जो गुनना था
पर तुम अपने बंध में आज भी हो
कभी धृतराष्ट्र कभी दुर्योधन
कभी शकुनी ....
कभी कर्ण कभी अर्जुन कभी युद्धिष्ठिर ....
एक बार पूर्णतः यशोदा या राधा बनो
न प्रश्न न संशय न हार न जीत
बस ------ माखन और बांसुरी की धुन

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

sab krishna ki mahima hai......

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कृष्ण को भी फंसा लिया अपने शब्द जाल में ... बहुत प्रवाहमयी रचना

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

beautiful!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पूर्ण समर्पण करने वाले को सब समर्पित कर देते हैं कान्हा।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

शब्द और अर्थ की धाराप्रवाह भावपूर्ण ...खुद को समर्पित करती कविता ....बहुत खूब

RITU BANSAL ने कहा…

कुछ दिनों से अपनी उपस्थिति नहीं दे पा रही हूँ ,कंप्यूटर खराब हो गया है ..
..बेहतरीन भाव..
जय श्री कृष्ण
kalamdaan.blogspot.in

Anupama Tripathi ने कहा…

बहुत प्रभावशाली रचना .....प्रभु तक पहुँचना आसान नहीं है ...कुछ न कुछ रह जाता है अपने आप को सुधारने के लिए ....!!

बेनामी ने कहा…

बहुत उम्दा!

avanti singh ने कहा…

sundar rachna ,bdhai aap ko

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

सुंदर कविता... वाह!
सादर।

Rachana ने कहा…

bahut hi sunder bhavon se saji kavita
rachana