अभी रात गयी नहीं है
अभी सुबह हुई नहीं है
बस दोनों के
आगमन और निर्गमन
के मध्य का वो
अद्भुत दृश्य
शीतल पुरवाई
शांत सुरम्य मनमोहक वातावरण
प्रकृति अपना घूंघट घोलने से पहले
ज्यों सकुचाई सी पल्लू की ओट से
निरीक्षण कर रही हो दिवस का
ठिठकी खडी हो ज्यों
कोई परदेसी कुछ देर रुका हो
किसी अनजानी राह पर
प्रभात ध्वनियाँ गुंजारित हो रही हों
कहीं से अजान तो कहीं गुरुग्रंथ जी का पाठ
तो कहीं मंदिर में बजती घंटियाँ
तो कहीं आरती के स्वर
हर आते जाते के मुख से
जय सिया राम की ध्वनि का निकलना
भक्तिमय सुरम्य वातावरण
और भोर का तारा भी
यूँ झिलमिलाता हो
ज्यों आतिशबाजी कहीं चलती हो
कहीं मुर्गे की बांग
तो कही चिड़ियों का कलरव
तो कहीं झुण्ड में उड़ते पंछियों का
आसमाँ के सीने पर पंख फ़डफ़डाना
ज्यों बच्चा कोई पिता के सीने पर
किलकारियां भरता हो
मंद मंद बहती शीतल स्वच्छ समीर
साँसों के साथ जैसे
पूनम की चाँदनी मन में उतरती हो
सारी कायनात यूँ न्योछावर होती है
ज्यों नववधू का स्वागत करती हो
आहा ! सुदूर में खिलती लालिमा
ज्यों नववधू की मांग का सिन्दूर झिलमिलाता हो
दिनकर भी नववधू के माथे की बिंदिया सा टिमटिमाता हो
एक आल्हादित करने वाला रोमांचक
भोर का वो सुरम्य मनमोहक संगीत
ओ मनुज ! अब कहाँ से पाऊँ मैं ?
जो आत्मा में आज भी
सात सुरों की सरगम बन
दिव्य राग सुनाता हो
मन मयूर जहाँ नाच जाता हो
ऊंची अट्टालिकाओं, ह्रदयहीन मानव
मशीनी ज़िन्दगी के बीच
सिमटती ज़िन्दगी के चौराहे पर
मेरी रूह कुचली मसली पड़ी है
उस दृश्य के लिए मचलती है ........
जो आज भी मेरे गाँव में बिखरा मिलता है
ये कैसा शहरीकरण का प्रकोप मुझे दिखता है
जिसमे ना कहीं कोई स्पंदन दिखता है
जहाँ भोर भी आने से डरती है
जहाँ ना कोई उसके स्वागत को उत्सुक दिखता है
बस नववधू द्वार से ही वापस मुड जाती है
पर घूंघट उठाने की हिम्मत ना करती है
बस प्रकृति यही सवाल करती है
आह ! कब मैं पुनः अपना स्वरुप वापस पाऊंगी
हर आँगन में नृत्य करती देखी जाऊंगी
बता सकते हो ......ओ मनुज !
इस अंधे गहरे कुएं में मेरी वापसी का भी कोई द्वार बनाया है क्या ??????
21 टिप्पणियां:
प्रकृति के मन से निकले भावों का सुंदर चित्रण किया है ... विचारणीय रचना
शहर वालों का दर्द बयाँ कर दिया...ना तो सुबह का उजास देखने को मिलता है..ना .गोधुली वेला..ना चांदनी रात..
बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति
सुन्दर विचार ..!
बहुत ही भावमय करती शब्द रचना ।
प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य अभिभूत करता है।
पहले प्रकृति का मनमोहक चित्रण और फिर शहरों की सूनी सुबह के जिक्र से कविता एक नया मोड़ ले लेती है, वन्दना जी, आपको बहुत बहुत बधाई इस अनुपम कृति के लिये.
पृकृति का दर्द बयान कर दिया.
प्रकृति का अनुपम सौंदर्य बिखेरती पोस्ट ....
sarthak post
कविता एक सांस में पढ़ गया... जीवन कि तरह कोई विराम नहीं... बढ़िया..
बहुत बढ़िया... एक शाश्वत प्रश्न उठाई गई है कविता के माध्यम से..
प्रकृति पर सुन्दर प्रस्तुति |सार्थक अभिव्यक्ति |
आशा
प्राकृतिक उपालाम्भों ने बहुत कुछ कहा
कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति .......
कविता के शब्द जाल बांध लेते हैं।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है।
चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं....
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prakriti ke maadhyam se aapne bahut kuch kaha vandna ji -----achchi prastuti
प्रकृति की पीड़ा बयान करने के लिए बहुत गहरे शब्दों का प्रोयोग किया है आपने ... बेहतरीन रचना ...
khoobsurat prastuti!!!
bahut hi sundar rachana lagi ....badhai Vandana ji
यह नव वधू...हामारी प्रकृति के रूप में सामने है और इसे 'सुस्वागतम'कहने के लिए भी हमारे पास समय नहीं है...मनुष्य जीवन 'मशीन' बनता जा रहा है !....यथार्थ से भरपूर सुन्दर रचना!...आभार!
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