भार उभारों का ना महसूस हुआ होगा
सिर्फ भार हीन उभार ही दिखे होंगे
यही तो तुमने कहना चाहा है
शब्दों से खेलना चाहा है
सिर्फ हिम्मत नहीं कर पाए हो
सच कहने की इसलिए
उभारों का सहारा लिया
और अपने मन की ग्रंथि को
उभारों तले दबा कर उभार दिया
मगर सच्चे साहित्यकार ना ऐसा करते हैं
वो तो सिर्फ और सिर्फ
सच्चे साहित्य को ही लिखते हैं
अभी तुम्हारी साहित्य की पकड़ ढीली है
वैसे भी तुम्हारी हालात अभी बहुत पतली है
तभी ये मानसिक विकार उभरा है
और आत्मग्लानि से भर कर तुमने
इसे साहित्यिक प्रमाण दिया है
बबुआ पहले साहित्य सीख कर आना
फिर साहित्य की दुन्दुभी बजाना
यूँ ही हल्ला मत मचाना
वरना दूसरे भी म्यान में तलवार रखा करते हैं
और वक्त आने पर वो भी खींच लिया करते हैं
समझ सको तो समझ लेना
भाषा का अनुचित प्रयोग हमें भी आता है
मगर तुम्हारी तरह हर कोई सीमाएं नहीं लाँघ जाता है
जब तक कि ना कोई कारण हो
समस्या का ना निवारण हो
गुप्त हों या त्रिवेदी
क्यों नहीं कान पर
जूँ तक रेंगी
कहाँ गए वो
हाहाकार मचाने वाले
देखो साहित्य की
काली होली जल रही है
दौड़ो भागो
बचाओ अपनी
साहित्यिक विरासत को
या भूल चुके हो
तुम इस अनर्गल भाषा को
ओ महा मनुष्यों
विशिष्ठ साहित्यकारों
अब करो तुम भी
उसी का महिमा गान
जिसने तुम्हें चढ़ाया परवान
और बतला दो
सभी साहित्यकारों को
तुम नहीं हो
सच्चे साहित्यकार
शीलता अश्लीलता के लिए
तुम्हारे हैं दोहरे विचार
दोहरे मापदंड
दोहरे चेहरे
दोहरे कृतित्व
तभी तो देखो ना
कितनी सम्मानित दृष्टि से देखा करते हो
महिला को "चिकनी चमेली " कहने पर भी
चुप रहा करते हो
ये दोहरा चेहरा ही दर्शाता है
कैसे दोगले चरित्र तुम्हारे हैं
अब कहाँ मर्यादाएँ गयीं
अब कहाँ भस्मीभूत हुईं
तुम्हारा अनर्गल वार्तालाप ही
तुम्हारे सारे अवगुण छुपाता है
मगर सत्य तो सभी को नज़र आता है
कोई अपनी बात कहे
उसके अर्थ जाने बिना
तुम आरोपों का झंडा बुलंद करते हो
मगर गर कोई तुम्हारा अपना कहे
वैसा ही वार्तालाप करे
और साहित्य का बलात्कार करे
मगर तब ना इनकी दुन्दुभी बजती है
तब भी जय जय हो ध्वनि
प्रस्फुटित होती है
जब ऐसे आचार विचार होंगे
जब एक ना आचार संहिता होगी
कहो कैसे ना साहित्य
हर गली कूचे में अपमानित होगा
क्योंकि कभी खुद को साहित्य का
कभी रक्षक कहते हैं
और खुद ही साहित्य का बलात्कार करते हैं
पता नहीं कैसे ये
दोगला चरित्र जीते हैं
जिनमे वो ही नियम
खुद पर ना लागू होते हैं
और अपने अनर्गल लेखन को भी
सार्थक कहते हैं
अपने भावों को सही ठहराते हैं
मगर दूसरे के भावों का ,समस्या का
मखौल उड़ाते हैं
ये दोहरा चरित्र एक दिन
ऐसे ही अपमानित करता है
जब कभी केले के छिलके पर
खुद का पाँव पड़ता है
मगर हमें क्या
हमने तो दोहरे चेहरे दिखला दिए
बातों के मतलब समझा दिए
अब जो समझे तो समझ ले
वरना ना समझे तो उसकी मर्ज़ी है
बस यही तो यहाँ की
ब्लॉगजगत की दोहरी नीति है
18 टिप्पणियां:
ज़िल्लत का अहसास आदमी को शराफ़त से गिरा देता है.
छिड़ी हैं जंग आज
फिर अपनों में
पर आस के दीपक ,
मंदिरों में आज भी जलते हैं |
गैरों की क्या बात करे ,
यहाँ अपने ही हमला करने में
जुटे हैं |
जो मानसिक-रोग से ग्रसित हो ,
जिसे अपनी माँ की परवाह न हो ,
*(गलती मुझसे भी हुआ)* ....
उसे अहमियत क्यों देना .... ??
विरोध या यूँ कहें walk-out होना चाहए था ....
उस पोस्ट पर न तो एक टिपण्णी(कमेन्ट) ,
और न चिल-पों ... फ़ायदा तो उसका ही ....
बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ .... :(
कुछ अंगों,शब्दों में सिमट गई जैसे सहित्य की धार
कोई निरीह अबला कहे, कोई मदमस्त कमाल.
ब्लॉग की ख़बरें सदा से ऐसे तत्वों के नाम जगज़ाहिर करता आया है.
See Your Post
http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/05/breaking-news-vandana-gupta.html
ab virodh kaa tarikaa badale aur kanun virodh darj karaaye
maene link uplabdh karaa diyaa haen
http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/05/ncw.html
bahut hogyaa uttar pratiuttar ab tarikae sae jwaab dena kaa vakt haen
जिनका साहित्य से दूर दूर तक क़ोई लेना देना नहीं हैं
वो अपने लिखे को साहित्य कहते हैं
और अपने को साहित्यकार
इनका बस करो प्रतिकार और एक जुट हो कर
इनका करो बहिष्कार
सिर इनको भाई कह कर जिन्होने चढ़ाया हैं
वो भी बहिष्कृत हो जाए
बदलाव तभी संभव हैं
अभी कुछ दिन पूर्व एक अपने पूर्वोत्तर की लड़की ने आत्म हत्या कर ली ... वहां के मुख्यमंत्री चिल्ला चिल्ला के कह रहे हैं कि राजधानी में पूर्वोत्तर के लोंगों के साथ भेदभाव होता है... थोड़े दिन पहले उत्तर प्रदेश के किसानो ने २० पैसे आलू गोदाम वालों को देने से मना कर दिया, अभी आलू १० से पंद्रह रूपये किलो बिक रहे हैं.... नक्सलियों ने एक युवा प्रशासनिक अधिकारी को बंधक बना कर रखा है... वहां रखा है जहाँ सरकार की सड़कें नहीं पहुची हैं और... साहित्य का विषय ही भटक गया है... सरोकार के मुद्दे ही गायब है... ब्लॉग के लिए स्वस्थ परंपरा नहीं है यह. यह साहित्य का ***** नहीं है... बल्कि यह साहित्य है ही नहीं ...
भावपूर्ण रचना अभिव्यक्ति ... आज की रचना से ऐसा प्रतीत हो रहा है की बड़े क्रोधित भाव से लिखी गई है ....आभार
भारतमाता रो रही है ...
अपना अस्तित्व खोता हुआ देख रही है ....
मेरे ही लाल ने कैसे मिटटी में मिला दिया मेरा अस्तित्व ....
गुड गोबर कर दिया सभ्यता का बखान ...
माँ हैरान ...परेशान ....
हैरान परेशान ......
हैरान .............................................!!!!!!
सोचने पर मज़बूर करती रचना...आभार एवं शुभकामनाएँ ।
kuch kuch andaaj laga hai..lekin aapne bade hee sahityik tareeke se jabab diya hai aapne..sadar badhayee aaur sadar amantran ke sath
रचना जी की बात से सहमत हूं। ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना ज़रूरी है।
जिन्हे देह और देह के अंग विशेष सूझते हों उनके कुंठित मन का साहित्य से क्या लेना देना। अरुण जी ने भी बहुत सही बात कही है।
समय आ गया है कि ऐसे लोगों के खिलाफ़ बहिष्कार का अह्वान किया जाए।
सही जवाब दिया जी .
और ये पोस्ट एक सवाल भी उठाती है .
बहुत अच्छे .
सही जवाब दिया जी .
और ये पोस्ट एक सवाल भी उठाती है .
बहुत अच्छे .
Very impressive presentation. Well expressed.
जूता साहित्य की चाशनी में भीगा हैं...चारों और सन्नाटा व्याप्त हैं ....जोरदार आवाज !!! क्या बात हैं ? थप्पड़ सवा किलो का रहा .... बधाई वंदना !
jwalant rachna!
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