लेखन के संक्रमण काल में
मैं और मेरा लेखन
क्या चिरस्थायी रह पायेगा
क्या अपना वजूद बचा पायेगा
क्या एक इतिहास रच पायेगा
प्रश्नों के अथाह सागर में
डूबता उतराता
कभी भंवर में
तो कभी किनारे पर
कभी लक्ष्यहीन तो
कभी मंज़िल की तरफ़
आगे बढता हिचकोले खाता
एक अजब
कशमकश की उथल पुथल में फ़ंसे
मुसाफ़िर सा
आकाश की ओर निहारता है
तो कभी अथाह जलराशि में
अपने निशाँ ढूँढता है
जबकि मुकाम की सरहद पर
खुद से ही जंग जारी है
नहीं ………ये तो नहीं है वो देश
नहीं ………ये तो नहीं है वो दरवेश
जहाँ सज़दा करने को सिर झुकाया था
और फिर आगे बढने लगती है नौका
ना जाने कहाँ है सीमा
कौन सी है मंज़िल
अवरोधों के बीच डगमगाती
कश्ती जूझती है
अपनी बनायी हर लक्ष्मणरेखा से
पार करते करते
खुद से लडते लडते
फिर भी नही पाती कोई आधार
सोच के किनारे पर खडी
देखती है
सागर में मछलियों की बाढ को
और सोचती है
क्या लेखन के संक्रमण काल से
खुद को बचाकर
रच पायेगी एक इतिहास
जिसके झरोखों पर कोई पर्दा नहीं होगा
कोई बदसलूकी का धब्बा नहीं होगा
जहाँ ना कोई रहीम ना कोई खुदा होगा
बस होगा तो सिर्फ़ और सिर्फ़
ऐतिहासिक दस्तावेज़ अपनी मौजूदगी का
मगर ………क्या ये संभव होगा?
संक्रमण काल में फ़ैलती संक्रामकता से खुद को बचाकर रखना
भविष्य अनिश्चित है
और आशा की सूंई पर
चाहतों की कसीदाकारी पूरी ही हो ………जरूरी तो नहीं
यूँ भी भरी सर्दी में
अलाव कितने जला लो
अन्दर की आग का होना जरूरी है ………शीत के प्रकोप से बचने के लिये
तो क्या …………यही है प्रासंगिकता
भीतरी और बाहरी खोल पर फ़ैली संक्रामकता की ??????
मैं और मेरा लेखन
क्या चिरस्थायी रह पायेगा
क्या अपना वजूद बचा पायेगा
क्या एक इतिहास रच पायेगा
प्रश्नों के अथाह सागर में
डूबता उतराता
कभी भंवर में
तो कभी किनारे पर
कभी लक्ष्यहीन तो
कभी मंज़िल की तरफ़
आगे बढता हिचकोले खाता
एक अजब
कशमकश की उथल पुथल में फ़ंसे
मुसाफ़िर सा
आकाश की ओर निहारता है
तो कभी अथाह जलराशि में
अपने निशाँ ढूँढता है
जबकि मुकाम की सरहद पर
खुद से ही जंग जारी है
नहीं ………ये तो नहीं है वो देश
नहीं ………ये तो नहीं है वो दरवेश
जहाँ सज़दा करने को सिर झुकाया था
और फिर आगे बढने लगती है नौका
ना जाने कहाँ है सीमा
कौन सी है मंज़िल
अवरोधों के बीच डगमगाती
कश्ती जूझती है
अपनी बनायी हर लक्ष्मणरेखा से
पार करते करते
खुद से लडते लडते
फिर भी नही पाती कोई आधार
सोच के किनारे पर खडी
देखती है
सागर में मछलियों की बाढ को
और सोचती है
क्या लेखन के संक्रमण काल से
खुद को बचाकर
रच पायेगी एक इतिहास
जिसके झरोखों पर कोई पर्दा नहीं होगा
कोई बदसलूकी का धब्बा नहीं होगा
जहाँ ना कोई रहीम ना कोई खुदा होगा
बस होगा तो सिर्फ़ और सिर्फ़
ऐतिहासिक दस्तावेज़ अपनी मौजूदगी का
मगर ………क्या ये संभव होगा?
संक्रमण काल में फ़ैलती संक्रामकता से खुद को बचाकर रखना
भविष्य अनिश्चित है
और आशा की सूंई पर
चाहतों की कसीदाकारी पूरी ही हो ………जरूरी तो नहीं
यूँ भी भरी सर्दी में
अलाव कितने जला लो
अन्दर की आग का होना जरूरी है ………शीत के प्रकोप से बचने के लिये
तो क्या …………यही है प्रासंगिकता
भीतरी और बाहरी खोल पर फ़ैली संक्रामकता की ??????
9 टिप्पणियां:
लेखन अपने समय के प्रभाव से बच नहीं सकता ,लेकिन उसमें समाहित जीवन-मूल्य उसके स्थायित्व का कारण बनते हैं !
जो शाश्वत रहेगा वह संक्रमण काल से भी निपट लेगा।
very nice....!!!!
हर लिखने वाले की सोच को लिख दिया है ...एक काश ???????? हर किसी के भीतर छिप के बैठा है ..........
खूबसूरत शब्दों की पेशकश ...बहुत खूब
kavita achhi lagi, dhayavad
श्रम कभी बेकार नहीं जाता ...बिना असमंजस के लेखन जारी रखने की आवश्यकता है
बहुत सुन्दर लिखा है। लेखन इसे ही कहते हैं ,जो समंदर से मोती निकाल कर लाने में सक्षम हो।
मोहब्बत नामा
मास्टर्स टेक टिप्स
इंडियन ब्लोगर्स वर्ल्ड
बेहद सार्थक एवं सशक्त प्रस्तुति
बहुत सार्थक और सुन्दर अभिव्यक्ति...
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