सुनो
आना चाहते हो ना इस पार
मेरे गमों को
मेरे दर्द को
अपने जीने की
वजह बनाने को
तो ध्यान से आना
यहाँ बुझी चितायें भी
शोलों सी भभकती हैं
अरे रे रे संभलना ………
ये जो धार है ना अश्कों की
इन पर पाँव ज़रा संभल कर रखना
कहीं फ़फ़ोले ना पड जायें
और मेरे दर्द में
एक इज़ाफ़ा और कर जायें
जानते हो ना ………
मैं चाहे कितना सिसकूँ , तडपूँ
मगर तुम्हारी रूह पर
दर्द की हल्की सी लकीर भी गंवारा नहीं ………
यूँ भी अश्कों की धार पर चल
मंज़िल तक पहुँचने के लिये दहकते पलाश पार करने होते हैं
क्योंकि
बन्दगी के भी अपने आयाम हुआ करते हैं
12 टिप्पणियां:
बेहद गंभीर रचना , कहने को बहुत कुछ है शब्दों में बधाई
प्रेम भाव से सराबोर सुंदर रचना
बेहतरीन कविता,आभ़ार।
बन्धन तो बन्धन होता है, सुखमय कैसे हो सकता है..
दर्द भी बहुत है
संभल कर आना... तुम्हारी ज़रा सी पीर भी सह्य नहीं. भावुक रचना, शुभकामनाएँ.
prem ki bhavnaon se bhari kavita
बढ़िया रचना
घूरने के खिलाफ बने कठोर कानून के बाद
बहुत खूब ... उनको एक चोट भी गवारा नहीं ..
प्रेम की इन्तेहा ...
इश्क का नया अंदाज...सुंदर कविता..
प्यार तो ऐसे ही किया जाता है...
गहन भाव लिए, कुछ ताने देती हुई , कुछ पीड़ा का अह्शाश करती हुई हमेशा की तरह एक और सार्थक रचना
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