तुम और तुम्हारे लाजिक
समझ नहीं आते कभी कभी
कितना हल्के में लेते हो
कभी कभी चीज़ों को
खासतौर पर यदि
वो तुमने किया हो
सिर्फ़ एक इतना भर कह देना
"क्या हुआ फिर ……ऐसे ही होता है "
मगर अपनी गलती कभी नहीं स्वीकारना
और यदि कुछ ऐसा मैने किया होता
तो ……
क्या तब भी यही कहते ?
नहीं ……यही है तुम्हारा दोगला चरित्र
सिर्फ़ अपने लिये जीने वाला
हुंह ………क्यों लिख रही हूँ
क्यों कह रही हूँ
फिर किसे और किसके लिये
खुद से बडबडाने की आदत गयी नहीं अब तक
जबकि जानती हूँ
तुम तक कभी नहीं पहुँचेगी मेरी आवाज़
तुम कभी नही जान पाओगे मुझे
नहीं समझ पाओगे मेरी चाहत
क्योंकि
चाहतों के लिये बन्दगी में सिर झुकाना होता है
और ये तुम्हारे अहम को मंज़ूर नहीं होगा
इसलिये
अब ना गिला ना शिकवा करने का मन करता है
ना तुम पर दोषारोपण का या बहस का
हर बार विश्वास की धज्जियाँ उडाते
तुमने कभी देखा ही नहीं
मेरा वजूद भी उसके साथ
चिंदी चिंदी बन बिखरता रहा
और आज मुझमें "मैं" बची ही नहीं
वो ही वाली "मैं" जिसका
हर शब्द, हर आस , हर विश्वास
हर दिन, हर रात , हर सुबह , हर शाम
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ही तुम थे
वक्त किसी का ऐसा इम्तिहान ना ले
कश्ती हो कागज़ की और सागर पार करना हो वो भी बिना डूबे
तपती रेत का रेगिस्तान हूँ मैं
ज़रा एक अलाव और जला दो ………सुकूँ से जीने के लिये
समझ नहीं आते कभी कभी
कितना हल्के में लेते हो
कभी कभी चीज़ों को
खासतौर पर यदि
वो तुमने किया हो
सिर्फ़ एक इतना भर कह देना
"क्या हुआ फिर ……ऐसे ही होता है "
मगर अपनी गलती कभी नहीं स्वीकारना
और यदि कुछ ऐसा मैने किया होता
तो ……
क्या तब भी यही कहते ?
नहीं ……यही है तुम्हारा दोगला चरित्र
सिर्फ़ अपने लिये जीने वाला
हुंह ………क्यों लिख रही हूँ
क्यों कह रही हूँ
फिर किसे और किसके लिये
खुद से बडबडाने की आदत गयी नहीं अब तक
जबकि जानती हूँ
तुम तक कभी नहीं पहुँचेगी मेरी आवाज़
तुम कभी नही जान पाओगे मुझे
नहीं समझ पाओगे मेरी चाहत
क्योंकि
चाहतों के लिये बन्दगी में सिर झुकाना होता है
और ये तुम्हारे अहम को मंज़ूर नहीं होगा
इसलिये
अब ना गिला ना शिकवा करने का मन करता है
ना तुम पर दोषारोपण का या बहस का
हर बार विश्वास की धज्जियाँ उडाते
तुमने कभी देखा ही नहीं
मेरा वजूद भी उसके साथ
चिंदी चिंदी बन बिखरता रहा
और आज मुझमें "मैं" बची ही नहीं
वो ही वाली "मैं" जिसका
हर शब्द, हर आस , हर विश्वास
हर दिन, हर रात , हर सुबह , हर शाम
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ही तुम थे
वक्त किसी का ऐसा इम्तिहान ना ले
कश्ती हो कागज़ की और सागर पार करना हो वो भी बिना डूबे
तपती रेत का रेगिस्तान हूँ मैं
ज़रा एक अलाव और जला दो ………सुकूँ से जीने के लिये
12 टिप्पणियां:
हर नारी के मन की सोच को लिखने के लिए आभार
बेरुखी से बड़ा कास्ट कोई नहीं ..शानदार रचना
अपेक्षाएं होती ही हैं टूटने के लिए...मार्मिक रचना..
अभी भी अलाव की ज़रूरत है सुकून के लिए ? भावों को बहुत सहजता से लिखा है ।
वाह ...
दर्द की प्रभावी अभिव्यक्ति ..
शानदार रचना
Gyan Darpan
क्या वंदना जी , इतना दर्द न भरा करे.. दर्द होता है...
इतनी नाराजगी,
मतलब इतना ही
अपनापन भी होगा।
पर एक शब्द ने
पूरे किए कराए पर
पानी फेर दिया।
वो शब्द है दोगला चरित्र,
हालाकि आप दोहरा चरित्र कह कर भी काम चला सकती थीं।
शून्य को संबोधित करते हुए अच्छी रचना।
सूरज सा मैं भी तपता हूँ,
बहुत सुन्दर और सार्थक रचना आभार
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