वो एक कतरा जो भिगो कर
भेजा था अश्कों के समंदर में
उस तक कभी पहुँचा ही नहीं
या शायद उसने कभी पढ़ा ही नहीं
फिर भी मुझे इंतज़ार रहा जवाब का
जो उसने कभी दिया ही नहीं
जानती हूँ ............
वो चल दिया होगा उन रास्तों पर
जहाँ परियां इंतजार कर रही होंगी
कदम तो जरूर बढाया होगा उसने
मगर मेरी सदायें आस पास बिखरी मिली होंगी
और एक बार फिर वो मचल गया होगा
जिन्हें हवा में उडा आया था
उन लम्हों को फिर से कागज़ में
लपेटना चाहा होगा
मगर जो बिखर जाती है
जो उड़ जाती है
वो खुशबू कब मुट्ठी में कैद होती है
और देखो तो सही
आज मैं यहाँ गर्म रेत को
उसी खुशबू से सुखा रही हूँ
जिसे तूने कभी हँसी में उड़ाया था
बता अब कौन सी कलम से लिखूं
हवा के पन्ने पर सुलगता पैगाम
कि ज़िन्दगी आज भी लकड़ी सी सुलग रही है
ना पूरी तरह जल रही है ना बुझ रही है
क्या आँच पहुंची वहाँ तक ?
16 टिप्पणियां:
जिन्दगी आज भी लकड़ी की तरह सुलग रही है ...
बेहतरीन भाव संयोजन
आभार
ज़रूर पहुंची होगी .... आंच नहीं तो तपिश तो महसूस हुयी ही होगी
कि जिंदगी की लकड़ी आज भी सुलग रही है .... वाह , क्या खूबसूरत भाव हैं कविता के ... बहुत सुन्दर!
very nice .....
अन्तर्मन को भिगोती रचना...
सदैव की तरह अंतस को छूती भावपूर्ण रचना..
मुझे लगता है कि आप रचना के नीचे " जारी " लिखना भूल जा रही हैं।
एक ही विषय पर चल रहे "महाकाव्य" के अंत का इंतजार है।
बहुत सुंदर
प्रभावशाली एवं चिंतनपरक
सुंदर रचना
बधाई
आग्रह हैं पढ़े
तपती गरमी जेठ मास में---
http://jyoti-khare.blogspot.in
बहुत बढिया..
@mahendra shrivastav ji ye to pata nahi ye mahakavya hai ya kuch aur bas kuch khyal dastak de rahe hain aur main unhein prastut karti ja rahi hun isliye pata hi nahi kab tak jari rahega :)
शब्दों की आंच से कोई बच नहीं सकता।
प्रभावशाली कविता।
jindagi lakri ki tarah sulagti ja rahi hai... :)
bahut khub..
लेकिन वाकई लग रहा है कि एक कहानी चल रही है, जिसके खट्टे मीठे स्वाद हम सब तक पहुंच रही है।
सच कहूं तो लगता ये है जैसे किसी के जीवन का घटनाक्रम चल रहा है। इसे ही लेखक बाजीगिरी कहते हैं, जिसकी जितनी तारीफ हो कम है।
सामने वाले तक आँच पहुँचा सकने के उपक्रम में व्यस्त विश्व है यह।
khubsurat abhivyakti
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आग्रह है
गुलमोहर------
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