भुंजे तीतर सा मेरा मन
वक्त की सलीब चढ़ता ही नहीं
कोई आमरस जिह्वा पर
स्वाद अंकित करता ही नहीं
ये किन पैरहनों के मौसम हैं
जिनमे कोई झरना अब झरता ही नहीं
मैं उम्र की फसल काटती रही
मगर ब्याज है कि चुकता ही नहीं
खुद से लडती हूँ बेवजह रोज ही
मगर सुलह का कोई दर दिखता ही नहीं
17 टिप्पणियां:
बहुत बढिया वंदना झी.
बहुत सुंदर भाव...
काफी दिनों बाद आप की रचना पढ़ने का सौभाग्य मिला...
सुंदर प्रस्तुति...
मुझे आप को सुचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक 19-07-2013 यानी आने वाले शुकरवार की नई पुरानी हलचल पर भी है...
आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाएं तथा इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और नयी पुरानी हलचल को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी हलचल में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान और रचनाकारोम का मनोबल बढ़ाएगी...
मिलते हैं फिर शुकरवार को आप की इस रचना के साथ।
जय हिंद जय भारत...
मन का मंथन... मेरे विचारों कादर्पण...
यही तोसंसार है...
आपने लिखा....
हमने पढ़ा....
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए बुधवार 17/07/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in ....पर लिंक की जाएगी.
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है .
धन्यवाद!
खुद से लड़ने पर हार तो अपने ही हिस्से में आएगी..सो खुद से लड़ना नहीं है मित्रता करनी है...
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..
आपकी यह रचना कल मंगलवार (16-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण : नारी विशेष पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार१६ /७ /१३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है
बढिया, बहुत सुंदर
bade achhe bhaav hain ....
bade achhhe bhaav hain .....
bahut badia....
वाह ...एक नया सा प्रयोग
Bhut sunder
बहुत सुन्दर भाव !
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
latest post सुख -दुःख
बहुत सुन्दर अभिवक्ति वंदना जी
बहुत सुन्दर रचना ................
bahut hi badhiya .....uttam
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