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शनिवार, 6 जुलाई 2013

खुद से खुद को हारती .......... एक स्त्री

मेरे अन्दर की स्त्री भी 
अब नहीं कसमसाती 
एक गहन चुप्पी में 
जज़्ब हो गयी है शायद 

रेशम के थानों में 
अब बल नहीं पड़ा करते 
वक्त की फिसलन में 
ज़मींदोज़ हो गए हैं शायद 

बिखरी हुयी कड़ियाँ 
अब नहीं सिमटतीं यादों में 
काफी के एक घूँट संग 
जिगर में उतर गए हैं शायद 

बेतरतीब ख़बरों के 
अफ़साने नहीं छपा करते 
अख़बार की कतरनों में 
नेस्तनाबूद हो गए हैं शायद 

(खुद से खुद को हारती .......... एक स्त्री अपनी चुप से लड रही है )

11 टिप्‍पणियां:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

Bahut Sundar, Lazabaab !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

Bahut Sundar, Lazabaab !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सब को,
हर क्षण,
अपने से ही जूझना होता है,
क्या करें,
क्या न करें,
स्वयं से पूछना होता है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

इस स्त्री को हारने नहीं देना है ....

Akhil ने कहा…

बहुत गहरी बात ...दिल को छू गई रचना ...बहुत बहुत

Unknown ने कहा…

नमस्कार मित्र आपका ब्लॉग पढ़ा काफी अच्छा लिखते हो। हमने एक सामूहिक लेखन का ब्लॉग बनाया है। जिसे हम आप जैसे अनुभवी लेखकों के साथ मिलकर चलाना चाहते है। आप हमारे ब्लॉग के लेखक बने और अपनी ब्लॉग्गिंग को एक नया आयाम दें। हमे आशा है कि आप अवश्य ऐसा करेंगे। हमसे जुड़ने के लिए हमे कॉल करे 09058393330
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Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत बढिया...

Unknown ने कहा…

good
nice poem....

rosy

Pallavi saxena ने कहा…

अब जब यहाँ असमवेदानाओं की हद नहीं रही तो भला एक संवेदन शील इंसान या स्त्री कब तक इस भावना से वंचित रह सकते है यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब शायद एक भी संवेदनशील इंसान न हो इस धरती पर और किसी को किसी भी बात का कोई असर ही न हो गहन भाव अभिव्यक्ति...

Kailash Sharma ने कहा…

दिल को छूती बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति...

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

इस मौन में छिपा बहुत शोर है