अब नहीं कसमसाती
एक गहन चुप्पी में
जज़्ब हो गयी है शायद
रेशम के थानों में
अब बल नहीं पड़ा करते
वक्त की फिसलन में
ज़मींदोज़ हो गए हैं शायद
बिखरी हुयी कड़ियाँ
अब नहीं सिमटतीं यादों में
काफी के एक घूँट संग
जिगर में उतर गए हैं शायद
बेतरतीब ख़बरों के
अफ़साने नहीं छपा करते
अख़बार की कतरनों में
नेस्तनाबूद हो गए हैं शायद
(खुद से खुद को हारती .......... एक स्त्री अपनी चुप से लड रही है )
11 टिप्पणियां:
Bahut Sundar, Lazabaab !
Bahut Sundar, Lazabaab !
सब को,
हर क्षण,
अपने से ही जूझना होता है,
क्या करें,
क्या न करें,
स्वयं से पूछना होता है।
इस स्त्री को हारने नहीं देना है ....
बहुत गहरी बात ...दिल को छू गई रचना ...बहुत बहुत
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बहुत बढिया...
good
nice poem....
rosy
अब जब यहाँ असमवेदानाओं की हद नहीं रही तो भला एक संवेदन शील इंसान या स्त्री कब तक इस भावना से वंचित रह सकते है यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब शायद एक भी संवेदनशील इंसान न हो इस धरती पर और किसी को किसी भी बात का कोई असर ही न हो गहन भाव अभिव्यक्ति...
दिल को छूती बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति...
इस मौन में छिपा बहुत शोर है
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