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बुधवार, 2 अप्रैल 2014

क्योंकि भीड़ में भी अकेली हूँ मैं

सोचती हूँ 
गुम हो जाऊँ भीड़ में 
समेट लूँ वैसे ही 
जैसे कछुआ समेटता है 
अपने अंगों को अपने अन्दर 
और ऊपर रह जाती है 
एक सपाट खुरदुरी शिला सी 
क्योंकि 
फर्क सिर्फ खुद को पड़ता है 
खुद के होने या न होने का 
दूसरों के लिए तो हम सदा ही 
एक जरूरत भर की वक्ती पहचान रहे 
ऐसे में सिर्फ खुद के लिए जब 
एक आकाश बनाओ या नहीं 
किसी पर फर्क नहीं पड़ना 
सिर्फ स्वयं की संतुष्टि का आकाश 
और उसमे विचरण करता खुद का वजूद 
कौन सा आकाश पर अपने नक्स छोड़ पाता है 
जो प्रयत्न के रेशों पर लिखी जाए इबारत ज़िन्दगी की 
पहले भी तो गुमनाम था मज़ार मेरा 
कौन था जो जलाता था दीया यहाँ आशिकी का 
फिर अब कौन सा फर्क पड़  जाना है 
कम से कम खुद की खुद से होती जद्दोजहद से तो निजात पा लूँगी 
और कर दूँगी प्रमाणित ...........
जो दूर तक रौशनी दे वो दीप नहीं हूँ मैं 
आँधियों में भी न बुझे वो दीप नहीं हूँ मैं 
क्योंकि 
भीड़ में भी अकेली हूँ मैं 
फिर अकेलेपन में ही जब जीना है तो 
क्यों दुर्गम किलों को भेदूँ 
क्यों न अपने अस्तित्व की देगची में स्वयं को खोजूँ मैं ...

8 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

गहरे भाव...जब तक 'मैं' का भाव है तब तक अकेलापन रहेगा ही कोई भीड़ में रहे या नहीं...

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह , खूबसूरत अभिव्यक्ति है !!
आपकी खासियत यह है दीदी कि आप भावनाओं को व्यक्त करने वाले शब्द ढूंढ लाती हैं

Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर ..कल्पना नहीं कर्म :))

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-04-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा " मूर्खता का महीना " ( चर्चा - 1571 ) में दिया गया है
आभार

Mithilesh dubey ने कहा…

ओह। ………… गहरी संवेदना समेटे है आपकी ये रचना।

सूफ़ी ध्यान श्री ने कहा…

संसार में स्त्री अकेलेपन को प्रदशित करती हुई रचना..............विचारणीय....बहुत खूब............

रश्मि शर्मा ने कहा…

अकेली ही होती है स्‍त्री....मनोभाव को व्‍यक्‍त करती रचना

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत संवेदनशील और प्रभावी रचना...

Unknown ने कहा…

संवेदनशील रचना बधाई