मेरे सपनों की दुनिया का अंत
शायद यही है
बिना व्यक्त किये दफ़न कर दूं
कुछ आतिशी ख़्वाबों को
कुछ चाहत के गुलाबों को
जो मीर की ग़ज़ल से मुझमे
पला करते थे
जो भरी बज़्म में हरसिंगार से
खिला करते थे
जो मिटटी की सौंधी महक से
साँसों में रमा करते थे
जो पलकों के पर्दों में नयी नवेली दुल्हन से
छुपे रहा करते थे
करना होगा अब अंत
क्योंकि
शुरुआत को कुछ बचा ही नहीं
आँचल को रोज झाडती हूँ
मन के आँगन को रोज बुहारती हूँ
मगर
कोई आस की पत्ती झडती ही नहीं
और आडम्बर से भरी इस दुनिया में
मुखौटा कोई बदलता नहीं
जब दूर तक सिर्फ और सिर्फ
स्याह रातें हों
धूप कभी निकलती न हो
समय का सूरज अपना रुख बदलता ही न हो
किस धान के खेत में रोपूँ सपनों के संसार को
जिसका बीज पाले की मार से पहले ही नेस्तनाबूद हो गया हो
बस बहुत हो चुका तसल्लियों का सिलसिला
विश्वास और आस का मनोहारी नृत्य
अब और नहीं ............अब और नहीं
तुम्हें दफ़न होना ही है
मेरे अन्दर ........मेरे साथ
क्योंकि
अब नहीं चाहिए मुझे आश्वासनों की हरित क्रांति
उम्मीद के जागरण की महादेवी
इसलिए
शिखा पर गाँठ बाँध ली है मैंने स्वप्न विहीन जीने की कसम के साथ
4 टिप्पणियां:
Lajwab
आमीन ...स्वप्न का अंत यही होता है और होना भी चाहिए..सत्य ही पाने योग्य है
बहुत सुन्दर...
उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@मतदानकीजिए
नयी पोस्ट@सुनो न संगेमरमर
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