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सोमवार, 5 मई 2014

मेरे सपनों की दुनिया का अंत

मेरे सपनों की दुनिया का अंत 
शायद यही है 
बिना व्यक्त किये दफ़न कर दूं 
कुछ आतिशी ख़्वाबों को 
कुछ चाहत के गुलाबों को 
जो मीर की ग़ज़ल से मुझमे 
पला करते थे 
जो भरी बज़्म में हरसिंगार से 
खिला करते थे 
जो मिटटी की सौंधी महक से 
साँसों में रमा  करते थे 
जो पलकों के पर्दों में नयी नवेली दुल्हन से 
छुपे रहा करते थे 
करना  होगा अब अंत 
क्योंकि 
शुरुआत को कुछ बचा ही नहीं 
आँचल को रोज झाडती हूँ 
मन के आँगन को रोज बुहारती हूँ 
मगर 
कोई आस की पत्ती झडती ही नहीं 
और आडम्बर से भरी इस दुनिया में 
मुखौटा कोई बदलता नहीं 
जब दूर तक सिर्फ और सिर्फ 
स्याह रातें हों 
धूप कभी निकलती न हो 
समय का सूरज अपना रुख बदलता ही न हो 
किस धान के खेत में रोपूँ सपनों के संसार को 
जिसका बीज पाले की मार से पहले ही नेस्तनाबूद हो गया हो 
बस बहुत हो चुका तसल्लियों का सिलसिला 
विश्वास और आस का मनोहारी नृत्य 
अब और नहीं ............अब और नहीं 
तुम्हें दफ़न होना ही है 
मेरे अन्दर ........मेरे साथ 
क्योंकि 
अब नहीं चाहिए मुझे आश्वासनों की हरित क्रांति 
उम्मीद के जागरण की महादेवी 
इसलिए 
शिखा पर गाँठ बाँध ली है मैंने स्वप्न विहीन जीने की कसम के साथ 

4 टिप्‍पणियां:

VERMA'S ने कहा…

Lajwab

Anita ने कहा…

आमीन ...स्वप्न का अंत यही होता है और होना भी चाहिए..सत्य ही पाने योग्य है

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुन्दर...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@मतदानकीजिए
नयी पोस्ट@सुनो न संगेमरमर