इस बार मै पुस्तक मेले से शुक्रवार साहित्य वार्षिकी 2014 लायी तो देखकर आश्चर्य हुआ कि जो हिंदी प्रदेशों की सांस्कृतिक स्थिति पर केन्द्रित है उसमें चाहे परिचर्चा हो, स्मरण , यात्रा वृतांत , आत्मकथ्य , कहानी , डायरी , उपन्यास अंश या कवितायें पूरी किताब में महज 11 महिलाओं के लेखन को जगह दी गयी जिनमे से 7 महिलाओं की कविता थीं और बाकि की 4 अन्य स्थानों पर तो सोचिये कैसे नहीं ह्रास होगा कविता और कवि कर्म का जहाँ 70 लोगों की कवितायें छपी हों वहाँ सिर्फ़ 7 महिलायें शामिल की गयी हों ……आज जरूरत है हर तरफ़ ध्यान देने की तभी समग्रता से कविता को उसका उचित दर्जा मिलेगा हो सकता है कुछ महिलायें दे रही हों कुछ नयापन कविता को अपने लेखन के माध्यम से जो सबकी दृष्टि से ओझल हो अगर इस तरफ़ भी ध्यान दें बडे बडे लोग तो कविता जरूर अपना स्थान बना लेगी …………आज चारों तरफ़ चिंता की पोटली लिए घूमते तो सभी हैं कि कविता को उसका उचित स्थान नहीं मिल रहा या कहाँ खो रही है मगर कोई ध्यान नहीं देना चाहता इस बात पर सब बस दिग्गजों को छापने पर ही जोर दिया करते हैं और नयों को आजमाने का जोखिम कम उठाते हैं । कविता बेशक अपना मुकाम पा ही लेती है देर सवेर मगर जो हालात बनाए जाते हैं या पैदा किए जाते हैं उन्ही की वजह से कविता में शून्यकाल उपजता है और फिर हम ढूँढने लगते हैं कारण बस उन्हें मिटाने की वजह नहीं ढूँढा करते। और यही हाल पूरे साहित्य का है फिर वो कहानी हो उपन्यास या अन्य विधायें ।
1) क्या साहित्य में महिलाओं पर सिर्फ़ लिखा जा सकता है मगर उन्हें अग्रिम पंक्ति में लाने का उपक्रम नहीं किया जा सकता ?
2) क्या वो ही दोयम दर्जा देने की मानसिकता यहाँ भी व्याप्त नहीं है ?
जब तक इन प्रश्नों के हल साहित्य जगत नहीं ढूँढता एक पक्षीय वार्ताओं का कोई महत्त्व नहीं होता , व्यर्थ चिन्ताओं का लबादा ओढ खुद को साहित्य का हितैषी सिद्ध करने भर से नहीं बदला करती हैं तस्वीरें ।
1) क्या साहित्य में महिलाओं पर सिर्फ़ लिखा जा सकता है मगर उन्हें अग्रिम पंक्ति में लाने का उपक्रम नहीं किया जा सकता ?
2) क्या वो ही दोयम दर्जा देने की मानसिकता यहाँ भी व्याप्त नहीं है ?
जब तक इन प्रश्नों के हल साहित्य जगत नहीं ढूँढता एक पक्षीय वार्ताओं का कोई महत्त्व नहीं होता , व्यर्थ चिन्ताओं का लबादा ओढ खुद को साहित्य का हितैषी सिद्ध करने भर से नहीं बदला करती हैं तस्वीरें ।
6 टिप्पणियां:
चिंता लाजमी है इस दिशा में महिलाओं को स्वयं सोचने व सार्थक कदम उठाने की जरुरत है
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-06-2014) को "ख्वाहिश .... रचना - रच ना" (चर्चा मंच 1650) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
यह क्या तर्क हुआ। प्रकाशन में आरक्षण? मेरे विचार से रचना प्रकाशन का आधार उसकी श्रेष्टता होनी चाहिए। आनुपातिक व्यव्हार विचित्र बात हुई। यह तर्क समाज को कहाँ ले जायेगा?
@ Ayan Prakashan उर्फ़ भूपी सूद जी यही तो विडंबना है आज सिर्फ़ चर्चित नामों तक ही प्रकाशन ध्यान देते हैं ………बताइये क्या किसी नये को बिना पैसे लिये कोई छाप रहा है , छप रही है क्या उसकी बुक ………… हाँ यदि आज कोई भी चर्चित नाम हो तो देखिए खुद दौडे आयेंगे प्रकाशक भी संपादक भी और वो भी रॉयल्टी के साथ जबकि नया रचनाकार मूँह बाए देखता रह जाता है फिर चाहे उसकी रचना कितनी ही उच्च कोटि की क्यों न हो लेकिन वो बिकाऊ नहीं है तो खुद ही पैसा खर्च करेगा और रॉयल्टी तो दूर की बात हो जाती है क्या ये सब आपसे छुपा है ? यही तो हो रहा है कौन देखता है रचना की श्रेष्ठता और पत्रिकाओं में भी वो ही हाल है यदि कोई आपको जानता है तो आपको छापेगा अन्यथा नहीं आखिर ऐसा व्यवहार कहाँ लेकर जायेगा साहित्य को आप ही सोचिये।
बिलकुल सही कहा आपने। इस तरह के हालत शुभ नही हैं साहित्य के लिए
कविता बेशक अपना मुकाम पा ही लेती है देर सवेर मगर जो हालात बनाए जाते हैं या पैदा किए जाते हैं उन्ही की वजह से कविता में शून्यकाल उपजता है और फिर हम ढूँढने लगते हैं कारण बस उन्हें मिटाने की वजह नहीं ढूँढा करते। ये एक सत्य है ...
एक टिप्पणी भेजें