इतनी कसक
इतनी कशिश
और इतनी खलिश
कि नाम जुबान पर आ जाए
तो
कभी इबादत
कभी गुनाह
तो कभी तौबा बन जाए
और एक जिरह का पंछी
पाँव पसारे
बीच में पसर जाए
जहाँ न था कभी
हया का भी पर्दा
वहां अभेद्य दीवारों के
दुर्ग बन जाएं
तो क्या जरूरी है
शब्दों को गुनहगार बनाया जाए
कुछ गुनाह मौत की नज़र कर दो
अजनबियत से शुरू सफर को
अजनबियत पर ही ख़त्म कर दो
जीने को इतना सामाँ काफी है
कि सांस ले रहे हो तुम
हर प्रश्नचिन्ह के बाद भी
वैसे भी पड़ावों के शहरों में आशियाने नहीं बना करते ………
8 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति।
नई रचना : इंसान
जिरह से कोई बात कभी बनती नहीं देखी गयी..सुंदर रचना
बहुत भावपूर्ण लाज़वाब प्रस्तुति...
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति।
नई रचना : सूनी वादियाँ
वाह क्या बात है। बेहद सुन्दर लिखा है आपने
बेहद उम्दा...
@मुकेश के जन्मदिन पर.
बहुत सुन्दर .....
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