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बुधवार, 9 जुलाई 2014

सुबह की पलकों पर



हिंदी अकादमी दिल्ली के सहयोग से प्रकशित '  सुबह की पलकों पर ' शोभना मित्तल जी का काव्य संग्रह सजग प्रकाशन से आया है।  अभी कुछ समय पहले उन्होंने मुझे अपना काव्य संग्रह भेंट किया।  शोभना जी की कविताओं में मानवीय संवेदनाएं उभर कर आई हैं तो स्त्री स्वर भी प्रमुखता से उभरा है।  जीवन की हर विसंगति पर दृष्टिपात करते हुए शोभना जी सीधे सरल सहज शब्दों में अपनी बात कहने का गुर रखती हैं।  
कुंठाओं की ईंट ढोता 
इंसान खुद भी 
बन गया है ईंट जैसा 
क्या यह आरम्भ है 
एक और पाषाण युग का 
' पाषाण युग ' कविता के माध्यम से आज की जमीनी हकीकत को बयां करती गहरा प्रहार करती हैं आखिर कैसे सूख गए संवेदनाओं के स्रोत तो वहीँ ' मुक्ति ' के माध्यम से अहिल्या नहीं बनने की प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं।  ' इंसानियत की चीख ' आतंक से दहली मानवता की बेचारगी को दर्शाती कविता है।  वहीँ ' राम - राज्य ' के माध्यम से समाज में उपजे  नारी के प्रति अन्याय को दर्शाया है जिसे आज तक नारी भोग रही है।  राम को कठघरे में खड़ा करते हुए :

राम . 
जानकर या अनजाने 
सूत्रपात कर गए तुम 
निरपराध नारी निष्कासन की 
निष्कृष्ट रीत से 

ये कवि मन ही ऐसा होता है जो नयी नयी संभावनाएं खोज लेता है तभी तो कवयित्री ने सच्चाई , ईमानदारी , धैर्य , सौहार्द , सहिष्णुता , उदारता , सद्भावना आदि का ' गैट - टुगैदर ' कर लिया और कोशिश की आज के वक्त पर प्रहार करने की यदि आज इन्हें ढूंढने जाओ तो कहीं नहीं मिलेंगे 

संयम के मकान की 
लोभ ने करादी है कुर्की 
द्वेष ने स्नेह की 
कर दी है छुट्टी 

सुन्दर बिम्ब प्रयोग करते हुए गहरा कटाक्ष करती है रचना। 

व्यर्थ है 
उससे अब 
अपेक्षा करना 
रिश्तों में 
गर्मजोशी की 
ऊंचे पहाड़ों पर 
तो हमेशा 
बर्फ जमी रहती है 
' ऊँचाई ' कविता छोटी मगर सटीक अर्थ प्रस्तुत करती हुयी।  

'कविता से साक्षात्कार' में कविता की उपयोगिता और उसके दर्द को बयां किया है साथ ही आज कविता के बाज़ार में कविता के चीरहरण पर प्रहार करते हुए सच्चाई बयां की है:

 किया है , कर सकती हूँ बहुत कुछ 
गर न मिले 'खेमों' अभिशाप 
 कविता ही रहूँ तो अच्छी 
मत बनाओ अनर्गल प्रलाप 

' वैश्वीकरण ' के माध्यम से करारा प्रहार किया है आज की संस्कृति पर कि कैसे वैश्वीकरण के नाम पर घर टूट रहे हैं। 

' लक्ष्मीबाई ' के माध्यम से आज की नारी  की जीवटता को तो दर्शाया ही है कि कैसे एक नौकरीपेशा स्त्री किन किन हालत से गुजरते हुए जीवनयापन करती है वहीँ उन हालात में एक गर्भवती स्त्री की मनोदशा का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है:

यह भी मुमकिन है कि 
चक्र्व्यून को भेदना सीखता यह अभिमन्यु 
सीख ले व्यूह निर्माण भी 
और बहुत संभव है 
की इसके व्यूह में  फँसी हो 
कल कोई और लक्ष्मीबाई 

स्त्री के दुःख दर्द , पीड़ा से लेकर मानवता के दंश तक हर विषय पर कवयित्री की कलम चली है।  प्रकृति हो या पशु कोई अछूता नहीं रहा , हर विषय को बखूबी उकेरा है।  छोटी छोटी रचनायें सहज सम्प्रेक्ष्णीय हैं।अपनी शुभकामनाओं के साथ उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ । 


 

6 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत प्रभावी समीक्षा...

Anita ने कहा…

प्रभावशाली लेखन..शोभना मित्तल जी को बधाई !

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई.

वाणी गीत ने कहा…

आपने भलीभांति मिलाया इन कविताओ से !
शोभना जी को बधाई !

Maheshwari kaneri ने कहा…

सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

सुन्दर व प्रभावी समीक्षा . आदरणीया शोभना जी को बधाइयाँ.........