तन के उत्तरी छोरों पर
पछीटती माथे की रेखा को
वो गुनगुना रही है लोकगीत
जी हाँ ....... लोकगीत
दर्द और शोक के कमलों से भरा
सुन रहा है ज़माना …… सिर्फ गुनगुनाना
अंदर ही अंदर घुलती नदी का
बशर्ते कोई पढ़ना जानता हो तो
भौहों के सिमटने और फैलने के अंतराल में भी बची होती हैं वक्र रेखाएं
आदि काल से
परम्परागत रूप से
मन के स्यापों पर रोने को नहीं है चलन रुदालियों को बुलाने का ………
3 टिप्पणियां:
सुन्दर रचना !
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !
बेहतरीन
kavita me dhaar badh rahi hai
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