गाँव खो रहे हैं
शहर सो रहे हैं
और नींद है कि टूटती ही नहीं
विकास के पहिये ने
रेत दी हैं गर्दनें
मगर लहू है कि कहीं दिखता ही नहीं
उम्मीदों के आकाश
चकनाचूर हो रहे हैं
और अच्छे दिन की आस है कि टूटती ही नहीं
शस्त्रागार में शस्त्र हैं बहुत
मगर चलाने के हुनर से नावाकिफ हैं जो
नहीं जानते चक्रव्यूह भेदने की विधा
अब और नहीं
अब और नहीं
अब और नहीं
कहते कहते गुजर गयीं सदियाँ
मगर तख्तापलट है कि होता ही नहीं
शायद यही है वजह
कि अब गुंजाईश को जगह बची ही नहीं
अभिमन्यु भेदना है इस बार चक्रव्यूह तुम्हें ही .........मरना हासिल नहीं ज़िन्दगी का
शहर सो रहे हैं
और नींद है कि टूटती ही नहीं
विकास के पहिये ने
रेत दी हैं गर्दनें
मगर लहू है कि कहीं दिखता ही नहीं
उम्मीदों के आकाश
चकनाचूर हो रहे हैं
और अच्छे दिन की आस है कि टूटती ही नहीं
शस्त्रागार में शस्त्र हैं बहुत
मगर चलाने के हुनर से नावाकिफ हैं जो
नहीं जानते चक्रव्यूह भेदने की विधा
अब और नहीं
अब और नहीं
अब और नहीं
कहते कहते गुजर गयीं सदियाँ
मगर तख्तापलट है कि होता ही नहीं
शायद यही है वजह
कि अब गुंजाईश को जगह बची ही नहीं
अभिमन्यु भेदना है इस बार चक्रव्यूह तुम्हें ही .........मरना हासिल नहीं ज़िन्दगी का
4 टिप्पणियां:
पच्चीसवीं वैवाहिक वर्षगाँठ पर आप दोनों को हार्दिक बधायी हो।
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सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (31-01-2015) को "नये बहाने लिखने के..." (चर्चा-1875) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर
आस टूटनी भी नहीं चाहिए
bahut achchha likha hai Vandna ji..
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