सच कहूँ तो
अब तुमसे कोई भी
सवाल करने का मन ही नहीं करता
बदलाव की प्रक्रिया में हैं हम दोनों ही
शायद इसीलिए अब फिर से
एक अजनबियत तारी होने लगी है
तुम्हें जानकार भी
शायद अब तक जान नहीं पायी
और पूरी तरह शायद जान भी न सकूँ
क्योंकि
रोज रंग बदल जाती है इंसानी फितरत
फिर कैसे संभव है
उम्मीद की डोर का एक सिरा तुम्हें पकड़ा
हो जाना निश्चिन्त
अपने अपने किनारों पर चलते हुए भी
साथ रहना हमारी नियति है
एक दूरी और एक साथ के बीच कहीं बचा है एक रिश्ता
तो उसे बचाए रखने को
कटिबद्ध हैं हम दोनों ही
फिर चाहे अजनबियत के छोर रोज अपने पाँव सुरसा से बढाए जा रहे हैं
चुक चुकी हूँ अब
रोज रोज की खिटपिट से बेहतर है
अजनबियत की गोद में बैठ सफ़र को मंजिल तक पहुँचाना
अब फर्क नहीं पड़ता है
मिश्री की डली के साथ नीम चबाने में
जुबाँ तो कब की सारे स्वाद भूल चुकी है
कसैलेपन के स्वाद के साथ
मैं खुश हूँ अपने निविड़ अंधेरों में .........
अब तुमसे कोई भी
सवाल करने का मन ही नहीं करता
बदलाव की प्रक्रिया में हैं हम दोनों ही
शायद इसीलिए अब फिर से
एक अजनबियत तारी होने लगी है
तुम्हें जानकार भी
शायद अब तक जान नहीं पायी
और पूरी तरह शायद जान भी न सकूँ
क्योंकि
रोज रंग बदल जाती है इंसानी फितरत
फिर कैसे संभव है
उम्मीद की डोर का एक सिरा तुम्हें पकड़ा
हो जाना निश्चिन्त
अपने अपने किनारों पर चलते हुए भी
साथ रहना हमारी नियति है
एक दूरी और एक साथ के बीच कहीं बचा है एक रिश्ता
तो उसे बचाए रखने को
कटिबद्ध हैं हम दोनों ही
फिर चाहे अजनबियत के छोर रोज अपने पाँव सुरसा से बढाए जा रहे हैं
चुक चुकी हूँ अब
रोज रोज की खिटपिट से बेहतर है
अजनबियत की गोद में बैठ सफ़र को मंजिल तक पहुँचाना
अब फर्क नहीं पड़ता है
मिश्री की डली के साथ नीम चबाने में
जुबाँ तो कब की सारे स्वाद भूल चुकी है
कसैलेपन के स्वाद के साथ
मैं खुश हूँ अपने निविड़ अंधेरों में .........
5 टिप्पणियां:
जीवन में सुख दुख बराबर से आते हैं, सबके हिस्से में।
उन्हें मयस्सर नही अंधेरे भी ,
जो रोशनी बुझाये बैठे है ,
फर्क इतना है उन्हें हम अपना बनाए बैठे हैं
ek ajeeb sa sanwaad liye hue kavita ..
bahut kuch chuppaye hue aur bahut kuch kahti hui ..
badhayi ji
बहुत ही शानदार पोस्ट।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जब तक जीने की चाह हो जीते रहें , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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