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मंगलवार, 30 जून 2015

नींद का समय है ये


कभी कभी आप अचानक कुछ देखते हो तो सीधा मन को 

छूता है और भावों का दरिया बहने लगता है बस ऐसा ही 

आजअचानक कवि विजेंद्र जी ‪#‎VijendraKritiOar‬ की 

इस पेंटिंग को देखकर हुआ और ख्याल ने यूँ आकार लिया 

........नहीं जानती उस गहराई तक पहुँची भी या नहीं जिस

 नज़र से उन्होंने बनाई होगी लेकिन वो कहते हैं सबका हर 

चीज को देखने का अपना ही नजरिया होता है तो शायद 

यहाँ वो ही बात हुई हो ........तो मित्रों झेलिये मेरा ख्याल :





ये कतरे हुए पंखों से अवशिष्ट

अक्सर मजबूर करते हैं

मनोरोगी बन विचारने को



किस दुविधा में थे तुम कलाकार

जो ज़िन्दगी का अग्र भाग उग्र कर

भर देते हो प्रश्न हजार

और उत्तर रंगों की भीड़ में हो जाता है नदारद



अब क्या कहूं

ज़िन्दगी है तिलिस्म सी या तुमने बनाया है अपना ही एक

तिलिस्म

जिसके हर छोर पर

सूनी इमारतों पर छप्पर सरीखी है वेदनाओं की छत



न कबीर गुनगुनाता है अब और न मीरा

बस अब तो

मुखौटे कर देते हैं अक्सर आतंकित

जहाँ आँखों और मुँह की जगह होते हैं खाली गोलक



नींद का समय है ये

क्या सो सकते हो?



पेंटिंग साभार : 

#VijendraKritiOar

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