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सोमवार, 13 जुलाई 2015

ज़िन्दगी का स्वाद बदलने को

जरूरी तो नहीं होता हमेशा 
घडी की सुइयों संग संग रक्स करना 
कभी कभी बगावत भी जरूरी होती है 
अब वो समय से हो या खुद से 

आज मिला दिया है 
सुर से सुर 
अपने अंतर्मन से 
नहीं सरकना आज मुझे घडी की सुइंयों संग 

कोई इन्कलाब तो आ नहीं जाएगा 
जो वक्त पर खाना न बना सकूँगी 
जो घर के काम न समेट सकूँगी 
जो आँगन को न बुहार सकूँगी 
जो आज खुद से कुछ देर बतिया लूंगी 
क्या होगा ज्यादा से ज्यादा 
बस कुछ देर .......
और इतनी सी देर से नहीं बदला करतीं ग्रहों की चालें 

रूह की थकान उतारने को 
जरूरी होते हैं कुछ ख़ास ठीये 
क्या हुआ जो उम्र को लपेट दबा लिया कांख में 
और लगी कलाबाजियां खाने 
लौटने लगी फिर से 
किसी अदृश्य काल में 
जहाँ बर्फ के गोले खा चटकारा लगा सकूँ 
खट्टी मीठी गोलियों और इमली के स्वाद संग 
कुछ देर सब कुछ भूल सकूँ 
तीखी हरी मिर्च के बाद भी 
तेज मसाले और नींबू डलवा 
आँख से पानी बहाते 
जुबाँ से सी - सी करते 
स्वाद के हिंडोले पर झूल सकूँ 

वर्तमान से अतीत तक विचरण करने से 
नहीं टूटा करतीं परम्पराएं 
बस जीने को जरूरी 
चार मौसमों से परे 
एक बार फिर मिल जाता है पांचवां मौसम 
जो भर जाता है 
उमंगों के ताज में जीने की ललक 

तो क्या हुआ जो 
कुछ पल खुद को सौंप दिए जाएँ 
और समय से विपरीत बहा जाए 
उलटे पाँव चलने का हुनर सबको नहीं आता 
नियम के विपरीत चलकर 
जीने का भी अपना मज़ा हुआ करता है 


ज़िन्दगी का स्वाद बदलने को 
जरूरी है 
एक कुंजी कमर में लटकानी 
बगावत के मौसम की भी ..........

आखिर कब तक तहजीबों को दुशाला ओढ़ाए कोई ?

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