सजती हैं अक्सर राख की दुल्हनें
सजा कर माथे पर टिकुली
खींच कर लक्ष्मण रेखा लाल रंग से
करती हैं खुद को कैद
एक साढ़े सात फेरों के हवनकुंड में
चुआ कर तेल दोनों कोनों में
करा दिया जाता है गृहप्रवेश
प्रथा जो है
निभानी तो पड़ेगी न
एक अपार संसार की
खुलती पहली खिड़की से
झाँकती हैं दो जोड़ी आँखें
देखने को नयनाभिराम दृश्य
मगर हथेलियों पर उम्र भर
सिसकती हैं आरजुएं
और उम्र का सिपाही
ठक ठक की दस्तक के साथ
रोज भूंजता है हसरतों की मक्की
स्वाद का क्या है
जीभ भूल चुकी है स्वाद की सीढ़ियों पर चढ़ना
हो जाते हैं एक दिन
जब सब मन्त्र समाप्त तब भी
प्रज्ज्वलित रहती है अग्नि हवनकुंड में
मगर
आहुति को न मन्त्र बचते हैं न समिधा
तब भी
खूंटे से बंधी रहती है गाय
जानती है एक अटूट सत्य
जहाँ मूक बधिर सी रेत दी जाती हैं गर्दनें
उन चौखटों के
उन दहलीजों के पाँव नहीं होते .............
पिछले कुछ दिनों से अक्सर ऐसा हो रहा है या तो रचना की अंतिम पंक्ति या अंतिम पैरा पहले लिखा जाता है उसके बाद लेती है रचना आकार या फिर कोई बीच का हिस्सा पहले लिखा और बाद में रचना ने आकार लिया .........एक नयी सी दुनिया खुली है आजकल मेरे चारों ओर और आज की इस रचना ने भी अंतिम पंक्ति से ही आकार लिया
1 टिप्पणी:
सुन्दर रचना
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