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बुधवार, 19 अगस्त 2015

ज़िदों के जिद पर आने का मौसम

चलो 
तोड़ो मेरी चुप्पी कोई 
कि 
यहाँ सन्नाटों का कोलाहल बजबजाता है 
और 
आखेटक का ही आखेट हुआ जाता है 

ये 
किन बारहदरियों में घुटता है जिस्म मेरा 
कि
साँसों और धडकनों की जुगलबंदी पर 
कोई कहकहा लगाता है 
और
खामोश आहटों से रूह का ज़र्रा ज़र्रा छिला जाता है 

नहीं आता काली घटाओं को बरसने का शऊर
जानते हुए भी जाने क्यों 
मैं हूँ कि 
भेज देती हूँ संदेसे बिना टिकट लगे लिफाफों में 

सावन के बरसने से जरूरी तो नहीं हर बार धरा का हरा होना ही 
ये ज़िदों के जिद पर आने का मौसम है ..........

3 टिप्‍पणियां:

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

सुन्दर रचना

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

बहुत बढ़िया कविता

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20 - 08 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2073 में दिया जाएगा
धन्यवाद