चलो
तोड़ो मेरी चुप्पी कोई
कि
यहाँ सन्नाटों का कोलाहल बजबजाता है
और
आखेटक का ही आखेट हुआ जाता है
ये
किन बारहदरियों में घुटता है जिस्म मेरा
कि
साँसों और धडकनों की जुगलबंदी पर
कोई कहकहा लगाता है
और
खामोश आहटों से रूह का ज़र्रा ज़र्रा छिला जाता है
नहीं आता काली घटाओं को बरसने का शऊर
जानते हुए भी जाने क्यों
मैं हूँ कि
भेज देती हूँ संदेसे बिना टिकट लगे लिफाफों में
सावन के बरसने से जरूरी तो नहीं हर बार धरा का हरा होना ही
ये ज़िदों के जिद पर आने का मौसम है ..........
3 टिप्पणियां:
सुन्दर रचना
बहुत बढ़िया कविता
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20 - 08 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2073 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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