पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

रविवार, 8 अप्रैल 2018

बचे रहेंगे रंग मेरी नज़र में


जीवन का उल्लास हैं रंग. ज़िन्दगी में इंसान चाहता ही क्या है सिवाय रंगों के होने के. बिना रंगों के कैसा जीवन? कितना नीरस होता जीवन यदि उसमें रंग न होते. यहाँ तक कि प्रकृति भी समेटे हुए है जाने कितने रंग और शायद यही है कारण इंसान ने रंगों के महत्त्व को जाना , समझा और अपनाया. ऐसा ही एक रंग लिए आये हैं कवि-चित्रकार कुंवर रविन्द्र जी बोधि प्रकाशन से प्रकाशित अपने नए कविता संग्रह ‘बचे रहेंगे रंग’ के साथ.

कवि होने के साथ चित्रकार हैं या चित्रकार होने के साथ कवि ये तय करना जरूरी नहीं क्योंकि दोनों ही विधाओं में रविन्द्र जी की जबरदस्त पकड़ है. जब उनकी कलाकृति देखते हैं तो वो खुद बोलती है और जब उनकी कविता पढ़ते हैं तो वो अन्दर उतरती है, आपको पिन चुभाती रहती है. सहज सरल भाषा में बेहद साफगोई के साथ रविन्द्र जी अपनी बात रखते हैं. शब्दों की मितव्ययिता कोई उनसे सीखे लेकिन कम शब्दों में बड़ी बात कहना आसान नहीं होता. गागर में सागर भरती कवितायेँ पढने वाले के जेहन पर तीखा प्रहार करती हैं. जो कहते हैं वो तो आप पढ़ लेते हैं लेकिन जो अनकहा रह जाता है वो ही देर तक आपको सोचने पर विवश किये रहता है और यही कविता की सार्थकता है जो बाद तक आपको उद्वेलित करती रहे.

रंगों के चितेरे रंग ही जीवन में उतारते हैं फिर वो कैनवस हो या किताब. यहाँ कवि का अभिप्राय समझने की जरूरत है. यहाँ आखिर रंगों से कवि का क्या आशय है ये सोचना जरूरी है. यूँ तो ज़िन्दगी रंगों बिना अजाब है मगर इसी ज़िन्दगी में जब भ्रष्टाचार, असमानता, वैमनस्य , जातिवाद, राष्ट्रवाद आदि के स्याह रंग घुलते हैं तब जीवन कैसे दूभर हो जाता है तब एक कवि उद्वेलित हो कह उठता है और शायद यही उसकी दृष्टि है जो अन्धकार में भी प्रकाश खोज लेती है, उम्मीद का दामन कवि नहीं छोड़ता और कह उठता है – बचे रहेंगे रंग लेकिन कौन से रंग बचाना चाहता है कवि? ये भी सोचना जरूरी है और जब कवितायें पढो तो पता चलता है कवि कौन से रंग चाहता है ज़िन्दगी में. कवि चाहता है इंसानियत, मानवीयता, समानता, अपनेपन का रंग. यदि ये रंग बचे रहेंगे तो जीवन सहज हो जाएगा और कवि आशा का वाहक है. निराशा से आशा की ओर प्रस्थान करना ही संग्रह का उद्देश्य है. तभी कह उठता है – ‘मैं अँधेरे से नहीं डरता/ अँधेरा मुझसे डरता है/ मैं उजाला अपने हाथ में लेकर चलता हूँ’

कवि की चिंताएं हैं देश और समाज के प्रति, जहाँ विकास का झुनझुना सबको पकडाया गया है मगर एक जागरूक इंसान जानता है महज खोखली बातों से, सब्जबागों से कोई देश तरक्की नहीं कर सकता तभी तो गहरा कटाक्ष करता है ये कहकर तो साथ में मन की पीड़ा भी उभर कर आती है जो बताती है जागरूक है कवि – ‘एक दिन जब तुम सुबह सोकर उठाओगे/ तो देखोगे तुम्हारा गाँव स्मार्ट सिटी बन चूका है /बुलेट ट्रेन तुम्हारे गाँव के बीच से होकर गुजर रही है/ और तुम खुद को स्मार्ट सिटी के / किसी फुटपाथ पर भीख मांगते पाओगे/ तब समझ लेना विकास हो चूका है/ और तुम एक विकसित देश के /सभी व् सम्माननीय नागरिक हो’

क्योंकि कवि मन है तो व्यथित होना लाजिमी है. संवेदनशील होना ही कवि होने की पहली निशानी होती है तभी तो कविताओं के माध्यम से धर्म से परे इंसानियत को तरजीह देता है कवि ये कहते हुए- ‘मुझे दुःख नहीं होता / ईसाईयों के मारे जाने पर/ मुसलामानों या हिन्दुओं/ या फिर यहूदियों के मारे जाने पर/ मुझे दुःख नहीं होता/ मुझे बहुत दुःख होता है/ सिर्फ / इंसानों के मारे जाने पर’

वहीँ लोकतंत्र का अर्थ यही कोई जानना चाहे तो ‘माली हुई तम्बाकू’ कविता पढ़े तो जानेगा सच्चाई...कम शब्दों में गहरी मार करती कविता न केवल कटाक्ष करती है बल्कि हमारी कमजोरियों को भी उजागर करती है तो साथ ही बताती है कैसे हम अपने अधिकारों और कर्तव्यों का दुरूपयोग करते हैं. इसी तरह जंग लगा लोकतंत्र भी कवि को गंवारा नहीं तभी उम्मीद का दामन थामे है, आशा की किरण तमाम अन्धकार को मिटाने को काफी है फिर चाहे कितना भी वो असंवेदनशीलता दिखाएँ. व्यवस्था से व्यथित कवि सिवाय कटाक्ष के और कर क्या सकता है और वो अपनी कलम की धार से कहीं भी वार करने को नहीं चूकता. तभी तो कहने में संकोच नहीं करता कि बेशक कुएं सूखे, बच्चे मरें और तुम यानि शासक कितना भी पुरजोर कोशिश करे मिटाने की, हम नहीं मिटने वाले क्योंकि बाकी है अभी जिजीविषा. शायद यही है एक इंसान के अन्दर का जज्बा जो उसे हर कड़वा घूँट भरने के बाद भी बचाए रखता है. वहीँ ‘बनैले सूअर’ कविता के माध्यम से सोये हुओं को जगाने का आह्वान करता है कवि. इसी तरह कैसे आदिवासियों को सिर्फ वोट बैंक की तरह प्रयोग किया जाता है ये छोटी सी कविता द्वारा जाना जा सकता है जहाँ शहर और जंगल का फर्क ही ख़त्म हो चुका है तो आदमी एक प्रश्नचिन्ह बन चुका है जो वोट बैंक में तब्दील हो चुका है.

देश के प्रति कवि की चिंता हर दूसरी कविता में प्रगट हो रही है जहाँ हम सब जानते हैं, देखते हैं लेकिन कहने की हिम्मत नहीं कर पाते. वहीँ कवि सच्चाइयों को एक के बाद एक प्रस्तुत करता जाता है जब कहता है –‘लोगों के दिमाग निकाल कर/ किनारे रख दिए गए हैं/किस्से-कहानियों और मिथकों के बल पर/ उनके देखने, सोचने और समझने की शक्ति/ बड़ी सफाई से छीन ली गयी है/ झूठ और अफवाहों के बल पर/ एक ही लाठी से / गधे-घोड़े, गाय-भैंस और इंसान को हांका जा रहा है’ विचारणीय यहीं है आखिर क्यों ऐसा किया जा रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि शासक चाहते हैं किसी भी तरह खुद की वाहवाही फिर इसके लिए चाहे किसी भी हद को तोडा जाए, फिर इससे चाहे विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश किसी हिटलर के ख़्वाबों की भेंट चढ़ जाए और देश लोकतान्त्रिक ‘है’ से ‘था’ हो जाए. यही कटाक्ष फिर अगली कविता में अलग ढंग से उभरता है जब कवि फिर शासक के खिलाफ एक और दलील पेश करता है जहाँ शासक की दिखाई लोलीपोप से जनता सम्मोहित है और वो खुद ऐश कर रहा है वहीँ आम जनता यानि किसान आत्महत्या कर रहा है वहां एक कटाक्ष काफी है हकीकत बयां करने को – ‘ध्यान रहे/ देश की क़ानून व्यवस्था/ मृतकों के लिए नहीं होती’

‘यदि तुम चीख नहीं सकते’ कविता में मानो कवि यही कहना चाहता है उठो, खड़े हो, लड़ो अपने अधिकारों के लिए, सत्ता के रौब में मत रहो. जो डरता है , दबता है वो मारा जाता है इसलिए कर रहा है कवि आह्वान कि करो अपना ज़मीर जिंदा वर्ना मार दिए जाओगे किसी भी दिन या त्यौहार पर फिर वो होली दिवाली हो या ईद या चुनाव

कितनी कविताओं का जिक्र करूँ और किन्हें छोडूँ, दुविधा उत्पन्न हो जाती है जब जगह जगह कवि मन की व्याकुलता प्रकट होती है और ये सिर्फ कवि मन की ही व्याकुलता नहीं है, ये हम सबकी व्याकुलता है, हम सबके व्यथित ह्रदय की पुकार है जो कवि ने कविताओं के माध्यम से उकेरी है. एक जलता अलाव सीने में ज्वालामुखी सा धधक रहा है और कवि उसकी कुछ बूँद ही मानो अभी छींट पाया है, नहीं उंडेल पाया पूरा लावा वर्ना तहस नहस हो जाए सभ्यता. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा कविता ने तो इस सच्चाई को साबित कर दिया है कि यदि आपकी जेब भरी है तभी आप इस देश के नागरिक कहलाने लायक हैं, ये देश आपका है और सबसे बड़ी बात आप इस देश के हुक्मरान हैं, आप उन पर भी राज कर सकते हैं जो शासक हैं क्योंकि न्याय उन्हीं के लिए होता है पैसे के बल पर ख़रीदा हुआ और अन्याय आम आदमी के संग, ऐसे में मान लो यदि नहीं जाग सकते कि ये देश अब तुम्हारा नहीं रहा. मानो कवि कहना चाहता है जिसकी जेब भारी देश उसी का बस इतने तक रह गयी है आज देशप्रेमी होने की परिभाषा. तार तार कर देती हैं कविताएँ राजनीति के रेशे रेशे को. एक एक बंद को खोल रही है कवि की कलम. कवि कम शब्दों में गहरी मार कर रहा है और जो नहीं कह रहा वो ही ज्यादा सुनाई दे रहा है. हत्यारे हों या पद्म सम्मान से किन्हें नवाज़ा जाता है आज या फिर अच्छे दिन या सीमा पर मरते जवान कोई शय नहीं जो कवि के कटाक्ष का माध्यम न बनी हो. कवि के मन की बेचैनी कविताओं के माध्यम से उभरती हुई हमारी बेचैनियों को पोषित करती है.

‘उसने कहा/देश मेरे इशारों पर चलेगा /यदि नहीं चला / तो मैं देश को बर्बाद कर दूंगा/ देश पहले से ही अपाहिज था/ उसके इशारों पर नहीं चल पाया/ और अंततः उसने देश बेच दिया/ मूर्खों की बस्ती में जश्न था/ बुद्धिजीवी कर रहे थे विलाप’ क्या इस कविता के बाद भी कहने को कुछ बचता है? कवि की निगाह हर विसंगति पर है और कहने से उसकी कलम चूकती नहीं.

संग्रह में कवि की धारदार कलम ने सत्ता के खिलाफ मानो बिगुल बजा दिया है और मानो यही कहना चाहता हो या कहो यही है कवि का आह्वान – ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, मानो इसी के माध्यम से सोई जनता को उठाना चाहता है कवि, जगाना जरूरी है और ये काम कवि ही कर सकता है वो वक्त आने से पहले कि एक बार फिर देश विकास के नाम पर अदृश्य गुलामी की जंजीरों में जकड जाए. कवि की छटपटाहट बेशक कितनी हो लेकिन उन्हीं के बीच उम्मीद का दीया जलाया हुआ है जो चिन्हित करता है कितनी ही दुश्वारियां क्यों न हों राह में, कितने ही अंधेरों के बीहड़ हों, आशा का मद्धम सा जलता दीया काफी है जीवन की खूबसूरती को बचा सकने में, उम्मीदों, उमंगों, उल्लास और ख़ुशी के रंगों से जरूर रंगे रहेगा जीवन फिर चाहे हताश, निराश, कंटकाकीर्ण मार्ग ही क्यों न हो और यही तो हैं ज़िन्दगी के सच्चे रंग. एक चित्रकार से ज्यादा कौन रंगों के महत्त्व को समझ सकता है फिर वो कैनवस पर हों या ज़िन्दगी में.

रविन्द्र जी की बेबाक लेखनी के लिए उन्हें साधुवाद. उम्मीद है कवि जीवन के सभी रंगों को बचा ले जायेगा जब तक आशा की एक भी किरण बाकी है.

वंदना गुप्ता





2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-04-2017) को "छूना है मुझे चाँद को" (चर्चा अंक-2936) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Anita ने कहा…

सुंदर और सार्थक समीक्षा, कवि रविन्द्र को उनकी उल्लेखनीय पुस्तक 'बचे रहेंगे रंग मेरी नजर में' के लिए बधाई, देश और समाज के लिए उनकी फ़िक्र भरी कविताएं अवश्य ही लोगों को जगाने का काम करेंगी