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शनिवार, 4 अप्रैल 2009

मुसाफिर और स्टेशन

जिंदगियों की पटरियों पर
चलते चलते
न जाने कितने
स्टेशन आए
मगर ये न रुकी कहीं
हर स्टेशन पर
मुसाफिर बदले मगर
ये न बदली कभी
मुसाफिरों का साथ
बनता रहा,छूटता रहा
मगर न पता था
किसी एक स्टेशन पर
कहीं कोई मुसाफिर
किसी के इंतज़ार में
उम्र गुजार रहा था
जब मिले उस स्टेशन पर
यूँ लगा , वक्त थम गया
रूह का रूह से
अनोखा मिलन था
खामोश निगाहों से
बिना कुछ कहे
बातें हो गयीं
एक कसक दिल में लिए
मुसाफिर मिला
न जाने कितने जन्मों का प्यासा था
न जाने किस रूह को खोज रहा था
अपने हर जज़्बात को
वक्त की तराजू में
तोल रहा था
मगर वक्त कब ठहरा है
और ज़िन्दगी कब रुकी है
एक बार फिर
ज़िन्दगी दौड़ने लगी
पटरियों पर
मुसाफिर को
वहीँ छोड़कर
किसी खास याद के सहारे
फिर किसी और
स्टेशन पर
फिर किसी जनम में
मुलाक़ात का वादा करके
ज़िन्दगी ने मुसाफिर से
रुखसती ली
और ज़िन्दगी फिर से
अपनी अनजान
दिशा की ओर
स्टेशन पर स्टेशन
दौड़ते हुए
मुसाफिरों को
छोड़ते हुए
पटरियों पर दौड़ती रही

9 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

isi ka naam zindgi hai ...bilkul durust farmaya aapne

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

वन्दना जी!
शब्दों मे भाव उत्तम हैं, परन्तु विसंगतियाँ भी हैं।
‘‘जिन्दगी पटरियों पर दौड़ रही थी,
न जाने कितने स्टेशन आये परन्तु यह न रुकी।’’
जब स्टेशन पर रुकी ही नही तो
मुसाफिर कैसे बदल गये????????
मेरा सुझाव है कि यदि सुधार सको
तो रचना चहक उठेगी।
फिर मधुरिम पलों को मधुरमा की प्रतीक्षा नही करनी पड़ेगी।
गुलशन में अच्छे माली के आने से तो बहारे आ ही जाती हैं।
यदि माली अपने गुलशन से ला-परवाह हो तो।
अच्छा-खासा चमन भी वीरान बन जाता है।
रचना प्रकाशित कर पढ़वाने के लिए,
धन्यवाद।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन ख्याल.......

सुशील छौक्कर ने कहा…

अजब इत्तफ़ाक है कि कुछ दिनों से मेरे दिमाग में भी एक ख्याल था कि रेल पर कुछ लिखू पर आज आपकी ये रचना पढी थी। लगा मानो मैंने ही लिखी हो। खैर आप बाजी मार गई। वैसे आपको कैसे पता चला कि मैं भी कुछ ऐसा ही लिखने वाला हूँ। खैर आपने बहुत ही बेहतरीन लिखा है। मैं इतना अच्छा ना लिख पाता। सच पढकर आनंद आ गया।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर लिखा है।बधाई स्वीकारें।

shivraj gujar ने कहा…

बहुत ही बढ़िया. मन को छू लेने वाली रचना. शब्दों में भावनाएं यूं रची-बसीं हैं कि बरबस ही निकल पड़ता है मुंह से.....वाह! क्या बात है.

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

आपकी कई रचनाएँ पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि रचना के सृजनोपरांत आप उस पर बिना कोई चिंतन-मनन किए उसे प्रकाशित कर देती हैं!

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

एक बार अपने ब्लॉग का कोई भाग अपने कंप्यूटर में कहीं भी सेफ करने के बाद कॉपी करके देख लीजिए, आपको पता चल जाएगा कि आपका ब्लॉग कितना सुरक्षित है!

vijay kumar sappatti ने कहा…

vandana ji , kavita ka thought aur flow bahut hi jabardasht ban pada hai .. zindagi ke bhavo ko aapne acche shabd chitr diye hai ..

bahut sundar rachna lagi , lekin jaisa roopchand shastri ji ne kaha , waisa hi kar le to , poem ki depth aur bad jaayengi ..

anyway , you deserve kudos for such a good work.

regards

vijay