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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

फिर कैसे कहते हो ज़िन्दा है आदमी?

कैसे कहते हो 
ज़िन्दा  है आदमी 
वो तो रोज़ 
थोडा -थोडा 
मरता है आदमी


एक बार तब मरता है
जब अपनों के  दंश
सहता है आदमी
कभी मान के
कभी अपमान  के
कभी  धोखे के
कभी भरोसे के
स्तंभों को रोज
तोड़ता है आदमी
फिर भी मर -मर कर
रोज़ जीता है आदमी 


कैसे कहते हो 
मर गया है आदमी
क्या मौत का आना ही
मरना कहलाता  है
जो इक -इक  पल में 
हज़ार मौत मरता है आदमी
वो क्या जीता कहलाता है आदमी?


जिनके लिए जीता था 
उन्ही के गले की फँस हो जाये 
जब अपनों की दुआओं में
मौत की दुआ शामिल हो जाये
उस पल मौत से पहले
कितनी ही मौत मरता है आदमी


फिर कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़ 
थोडा- थोडा 
मरता है आदमी
मरता है आदमी ...............

26 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सच आज ज़िंदगी कि आपाधापी में जिंदा होने का एहसास ही नहीं रहा ....सटीक अभिव्यक्ति

बेनामी ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना!
मेरे भी दो शेर देखिएृ-
आदमी की भीड़ में, खोया हुआ है आदमी।
आदमी की नीड़ में, सोया हुआ है आदमी।।

आदमी घायल हुआ है, आदमी की मार से।
आदमी का अब जनाजा, जा रहा संसार से।।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

'mar-mar kar jeene aur ji-ji kar marne ka hi naam to jindgi hai.
achchhi post.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन अभिव्यक्ति, हर पल जीता, मरता आदमी। बहुत खूब।

बेनामी ने कहा…

वाह वंदना जी......कमाल कर दिया आज तो आपने......कितनी गहरी और सच्ची बात कह दी है .....सत्य है मौत कोई एक बार में थोड़े ही आती है .....वो तो रोज़ हमें मारती है.....इस पोस्ट के लिए आपको ढेरों शुभकामनाये|

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

mar mar ke jee raha hai aadmi:)
isliye jinda hai aadmi!!!

achchhi rachna!

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है...

सच में रोज़ ही तो मर रहा है आदमी...

नीरज गोस्वामी ने कहा…

मर मर के जीता आदमी...सच्चाई को पर्त दर पर्त उधेड़ती अद्भुत रचना...बधाई स्वीकारें

नीरज

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ! मानव जीवन के बारे में सच बयानी ...

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बिलकुल सधे अंदाज़ में आपने आदमी की मनोदशा को उभारा है.

सादर

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

अरे आपने तो बहुत ही ख़ूबसूरत फोटो लगायी है ... यह कविता भी आपकी फोटो की तरह ही ख़ूबसूरत ...

सटीक और बेहतरीन अभिव्यक्ति...

अनुपमा पाठक ने कहा…

sundar rachna!!!

राज भाटिय़ा ने कहा…

अति सुंदर शव्दो से सजी आप की सुंदर रचना, धन्यवाद

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार-मानवाधिकार, मस्तिष्क और शांति पुरस्कार

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सटीक अभिव्यक्ति.....
आपका नया लुक पसंद आया :)

M VERMA ने कहा…

वो तो रोज़
थोडा- थोडा
मरता है आदमी

और फिर जीने का भान करता है आदमी
सुन्दर रचना .. बहुत सुन्दर

Kunwar Kusumesh ने कहा…

जिंदा है पर डरा हुआ है.
यूं कह दो कि मारा हुआ है.

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

आम जीवन को कितने करीब से देखने की कोशिश की आपने इस कविता में.. मुझे तो अपनी कविता सी लग रही है.. सच के करीब...

निर्मला कपिला ने कहा…

सच है रोज़ मरता है हैरानी है फिर भी जिन्दा है। अच्छी रचना। बधाई।

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι ने कहा…

कैसे कहते हो ज़िंदा है आदमी ,
वो तो रोज़ रोज़ मरता है आदमी।
सुन्दर अभिव्यक्ति , बधाई।

राजेश उत्‍साही ने कहा…

....और एक दिन फिर मर ही जाता है।

vijay kumar sappatti ने कहा…

वंदना,
सच कह रहा हूँ , बहुत दिनों के बाद ऐसी कविता पढ़ने को मिली .. मैंने तो पढते पढते खो गया था ,. मुझे लग रहा था कि मेरी अपनी ही कविता है .. और सच कहूँ हर इंसान biologically तो थोडा थोडा ही मरता है , बाकी दूसरे कारणों से ज्यादा ज्यादा मरता है ..

तुम्हे दिल से बधाई इस कविता के लिये

विजय

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

बहुत ही अच्छा.....मेरा ब्लागः-"काव्य-कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ ....आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

आज तो रचना के साथ साथ तस्वीर भी बदली बदली नज़र आ रही है .....
बधाई दोनों के लिए .....!!

nilesh mathur ने कहा…

वाह! क्या बात है, बहुत सुन्दर! बेहतरीन ! संवेदनशील, बहुत दिन बाद कोई अच्छी रचना पढने को मिली है!

rafat ने कहा…

कईबार तो लगता है आदमी जिंदा चलती फिरती लाश है .बाकी जिंदिगी सचमुच टुकडों में मरने के अह्सास के सिवा कुछ नहीं ,फानी साब का शेर है -हर नफ्स उम्र ऐ गुजसिस्ता की मय्यत है फानी /जिंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का.