सुना था होता है इक बचपन
जिसमे होते कुछ मस्ती के पल
पर हमने ना जाना ऐसा बचपन
कहीं ना पाया वैसा बचपन
जिसमे खेल खिलौने होते
जिसमे ख्वाब सलोने होते
यहाँ तो रात की रोटी के जुगाड़ में
दिन भर कूड़ा बीना करते हैं
तब जाकर कहीं एक वक्त की
रोटी नसीब हुआ करती है
जब किसी बच्चे को
पिता की ऊंगली पकड़
स्कूल जाते देखा करते हैं
हम भी ऐसे दृश्यों को
तरसा करते हैं
जब पार्कों में बच्चों को
कभी कबड्डी तो कभी क्रिकेट
तो कभी छिड़ी छिक्का
खेलते देखा करते हैं
हमारे अरमान भी उस
पल को जीने के
मगर जब अपनी तरफ देखा करते हैं
असलियत से वाकिफ हो जाते हैं
सब सपने सिर्फ सपने ही रह जाते हैं
कभी भिखारियों के
हत्थे चढ़ जाते हैं
वो जबरन भीख मंगाते हैं
हमें अपंग बनाते हैं
तो कभी धनाभाव में
स्कूल से नाम कटाते हैं
और बचपन में ही
ढाबों पर बर्तन धोते हैं
तो कभी गाड़ियों के शीशे
साफ़ करते हैं
तो कभी लालबत्ती पर
यूँ हम बचपन बचाओ
मुहीम की धज्जियाँ उडाया करते हैं
बाल श्रम के नारों को
किनारा दिखाया करते हैं
पेट की आग के आगे
कुछ ना दिखाई देता है
बस उस पल तो सिर्फ
हकीकत से आँख लड़ाते हैं
और किस्मत से लड़- लड़ जाते हैं
बचपन क्या होता है
कभी ये ना जान पाते हैं
जिम्मेदारियों के बोझ तले
बचपन को लाँघ
कब प्रौढ़ बन जाते हैं
ये तो उम्र ढलने पर ही
हम जान पाते हैं
सुलगती लकड़ियों की आँच पर
बचपन को भून कर खा जाते हैं
पर बचपन क्या होता है
ये ना कभी जान पाते हैं
36 टिप्पणियां:
वंदना जी बेहतरीन और कमाल की पोस्ट..........आपकी पोस्ट में तस्वीरे कम ही होती हैं पर इस बार जो आपने लगाई हैं वो बहुत कुछ खुद कह रही हैं.......सिसकता बचपन........सुभानाल्लाह.......मुझे बहुत पसंद आई ये पोस्ट..........हैट्स ऑफ इसके लिए|
बहुत मार्मिक कविता, एक कटु सत्य जिसे हम देख कर भी कुछ विशेष नहीं कर पाते, सरकार ने बच्चों के लिये कितने कानून बनाये हैं पर बाल मजदूरी आज भी जारी है, जारी है उनका शोषण भी, कई प्रश्न उठाती एक दिल को छूने वाली कविता...
bachpan ko bahut khoobsoortee se bayaan kiyaa
uske dard ko bhee samjhaa aur samjhaayaa
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
कल 16/11/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है।
धन्यवाद!
एक उत्कृष्ट रचना बाल श्रम पर लिखी है आपने ।
बहुत अच्छे से सामाजिक चिंतन का सन्देश ।
काश ! हम इसे समझे व गरीबों तथा बच्चों के प्रति संवेदनशील हों ।
बेहतरीन प्रस्तुति ।
marmik bhawnaaon ko ukerti rachna
आखिरी पंक्तियाँ बहुत प्रभावशाली हैं.एक मार्मिक और कडुवा सच.
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना
सुलगती लकड़ियों की आँच पर
बचपन को भून कर खा जाते हैं
पर बचपन क्या होता है
ये ना कभी जान पाते हैं
....सच में समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा बचपन से अनजान रह जाता है..बहुत मार्मिक और सटीक अभिव्यक्ति...
ऐसी संवेदनशील कविता जो दिलो-दिमाग विलोड़ित कर दे.
काश सबको ही संभावनाओं का बचपन मिले।
बहुत ही सटीक और मार्मिक रचना..
samaaj ko aaina dikhai rachna man ko udvelit karte chitra.bhookh ke saamne baal shraman ka naraa pani bharta hai.bahut sarahniye prastuti.
बेहद खूबसूरत कविता... अलग फलक की कविता ...
बहुत मार्मिक प्रस्तुति ..सच्चाई को कहती हुई
यथार्थ को चित्रित करती शानदार रचना
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आपकी यह रचना सच्चाई से रुबुरु करवाती हैं और अनेकों प्रश्नों के उत्तर मांगती हैं ...
प्रभावशाली कविता ... बचपन के यह हाल सच में दुखद ही हैं.....
सत्य का मार्मिक व्याख्यान सी कविता!
सबको नसीब नहीं होता बचपन।
बेहतरीन काव्य , यात्रा अनवरत चलती रहे
बहुत सुंदर।
गजब का दर्द.....
विचारोद्वेलक रचना... सार्थक...
सादर...
हम मानव संसाधनों का सही और पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. सुंदर रचना.
बाल श्रमिकों की समस्या पर ध्यान खींचा है आपने , परन्तु जब तक कानून बनाने वाले स्वयं अपने घरों पर बाल श्रमिक रखेंगे बहुत फर्क नही पडने वाला है . किन्त चेतना जगाने का प्रयास सतत जारी रहना चाहिए
यथार्थ को प्रस्तुत करती कविता।
सादर
सुलगती ..........बचपन भून कर खा जाते है
मार्मिक एवम यथार्थ्
marmik hai bachpan ka ye anubhaw.....
बहुत ही मार्मिक और अपील करती हुई सार्थक रचना!!!
कई बार आपके ब्लॉग पर आने की कोशिश की.
न जाने क्या गडबड है कि 'टिपण्णी बॉक्स'खुल के ही नही दे रहा था.
आपने बहुत ही मार्मिक हृदयस्पर्शी लिखा है.
आपका सुन्दर लेखन नित प्रति नए नए
रंग प्रस्तुत कर रहा है.
इस बार सदा जी की हलचल से चल कर
यहाँ आ पाया हूँ.आपका और सदा जी का बहुत बहुत आभार.
Bahan ji..
Bal divas par aapki rachna padh kar bhav vihal ho gay hun.. Man khinn ho utha hai.. Man main jaane kitna kuchh aata hai par kuchh bhi kar na paya hun..kamobesh hum sabki yahi haalat hai.barhaal sabka dhyaan es taraf akarshit karne ka shukria..
Shubhkamnaon sahit..
Deepak Shukla
जहां बच्चों को बचपन नसीब न हो,वह देश और समाज चूक जाता है आनंद और सहृदयता के उन क्षणों से जिनके अभाव के कारण ही हमारी मौलिकता नष्ट हुई जा रही है।
असलियत का पूरा चित्र खींच दिया है आपने इस रचना में ... कटु सत्य को उजागर किया है शब्दों में .. बहुत ही प्रभावी ...
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति धन्यवाद वंदना जी।वास्तव में दिल दुःखी हो जाता है बच्चों का बचपना छिनते देख।
सबसे खतरनाक होता है,
मुर्दा शांति से भर जाना,
न होना तड़प का,
सब सहन कर जाना,
सबसे खतरनाक होता है,
हमारे सपनो का मर जाना,
घर से जाना काम पर,
काम से लौट कर घर आना,
सबसे खतरनाक होता है,
हमारे सपनो का मर जाना,,,,,
सबसे खतरनाक होता है,
मुर्दा शांति से भर जाना,
न होना तड़प का,
सब सहन कर जाना,
सबसे खतरनाक होता है,
हमारे सपनो का मर जाना,
घर से जाना काम पर,
काम से लौट कर घर आना,
सबसे खतरनाक होता है,
हमारे सपनो का मर जाना,,,,,
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