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बुधवार, 16 नवंबर 2011

क्रांति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं

जिसने भी लीक से हटकर लिखा
परम्पराओं मान्यताओं को तोडा
पहले तो उसका दोहन ही हुआ
हर पग पर वो तिरस्कृत ही हुआ
उसके दृष्टिकोण को ना कभी समझा गया
नहीं जानना चाहा क्यूँ वो ऐसा करता है
क्यूँ नहीं मानता वो किसी अनदेखे वजूद को
क्यूँ करता है वो विद्रोह 
परम्पराओं का
धार्मिक ग्रंथों का
या सामाजिक मान्यताओं का
कौन सा कीड़ा कुलबुला रहा है
उसके ज़ेहन में
किस बिच्छू के दंश से 
वो पीड़ित है 
कौन सी सामाजिक कुरीति 
से वो त्रस्त है
किस आडम्बर ने उसका 
व्यक्तित्व बदला
किस ढोंग ने उसे 
प्रतिकार को विवश किया
यूँ ही कोई नहीं उठाता 
तलवार हाथ में
यूँ नहीं करता कोई वार 
किसी पर
यूँ ही नहीं चलती कलम 
किसी के विरोध में
यूँ ही प्रतिशोध नहीं 
सुलगता किसी भी ह्रदय में
ये समाज  में 
रीतियों के नाम पर 
होते ढकोसलों ने ही
उसे बनाया विद्रोही 
आखिर कब तक 
मूक दर्शक बन
भावनाओं का बलात्कार होने दे
आखिर कब तक नहीं वो
खोखली वर्जनाओं को तोड़े
जिसे देखा नहीं
जिसे जाना नहीं
कैसे उसके अस्तित्व को स्वीकारे
और यदि स्वीकार भी ले
तो क्या जरूरी है जैसा कहा गया है
वैसा मान भी ले
उसे अपने विवेक की तराजू पर ना तोले 
कैसे रूढ़िवादी कुरीतियों के नाम पर
समाज को , उसके अंगों को 
होम होने दे
किसी को तो जागना होगा
किसी को तो विष पीना होगा
यूँ ही कोई शंकर नहीं बनता
किसी को तो कलम उठानी होगी
फिर चाहे वार तलवार से भी गहरा क्यूँ ना हो
समय की मांग बनना होगा
हर वर्जना को बदलना होगा
आज के परिवेश को समझना होगा
चाहे इसके लिए उसे
खुद को ही क्यूँ ना भस्मीभूत करना पड़े
क्यूँ ना विद्रोह की आग लगानी पड़े
क्यूँ ना एक बीज बोना पड़े
जन चेतना , जन जाग्रति का 
ताकि आने वाली पीढियां ना
रूढ़ियों का शिकार बने
बेशक आज उसके शब्दों को 
कोई ना समझे
बेशक आज ना उसे कोई 
मान मिले
क्यूँकि जानता है वो
जाने के बाद ही दुनिया याद करती है
और उसके लिखे के 
अपने अपने अर्थ गढ़ती है
नयी नयी समीक्षाएं होती हैं
नए दृष्टिकोण उभरते हैं
क्रांति के बीज यूँ ही नहीं पोषित होते हैं
मिटकर ही इतिहास बना करते हैं 

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