ना पत्थर बनी
ना कागज ना मिटटी
ना हवा ना खुशबू
बस बन कर रह गयी
देह और देहरी
जहाँ जीतने की कोई जिद ना थी
हारने का कोई गम ना था
एक यंत्रवत चलती चक्की
पिसता गेंहू
कभी भावनाओं का
कभी जज्बातों का
कभी संवेदनाओं का
कभी अश्कों का
फिर भी ना जाने कहाँ से
और कैसे
कुछ टुकड़े पड़े रह गए
कीले के चारों तरफ
पिसने से बच गए
मगर वो भी
ना जी पाए ना मर पाए
हसरतों के टुकड़ों को
कब पनाह मिली
किस आगोश ने समेटा
उनके अस्तित्व को
एक अस्तित्व विहीन
ढेर बन कूड़ेदान की
शोभा बन गए
मगर मुकाम वो भी
ना तय कर पाए
फिर कैसे कहीं से
कोई हवा का झोंका
किसी तेल में सने
हाथों की खुशबू को
किसी मन की झिर्रियों में समेटता
कैसे मिटटी अपने पोषक तत्वों
बिन उर्वरक होती
कैसे कोरा कागज़ खुद को
एक ऐतिहासिक धरोहर सिद्ध करता
कैसे पत्थरों पर
शिलालेख खुदते
जब कि पता है
देह हो या देहरी
अपनी सीमाओं को
कब लाँघ पाई हैं
कब देह देह से इतर अपने आयाम बना पाई है
कब कोई देहरी घर में समा पाई है
नहीं है आज भी अस्तित्व
दोनों है खामोश
एक सी किस्मत लिए
लड़ रही हैं अपने ही वजूदों से
मगर नहीं बन पातीं
पत्थर, कागज ,मिटटी , हवा या खुशबू ज़िन्दगी की
यूँ जीने के लिए मकसदों का होना जरूरी तो नहीं ............
13 टिप्पणियां:
भावमय करते शब्द ... बेहतरीन प्रस्तुति।
जीना आपने आप में एक मकसद है, है कि नहीं...उस जीवन दाता की कुदरत से प्यार करते हुए...सुंदर प्रस्तुति !
भावपूर्ण सुन्दर रचना..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (19-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत ही सच ...और उम्दा रचना ..
पढ़ रही हूँ , सोच रही हूँ ... कहीं कुछ अटका सा है , स्पष्ट होकर भी ठहरा हुआ है
पत्थर, कागज ,मिटटी , हवा या खुशबू ज़िन्दगी की यूँ जीने के लिए मकसदों का होना जरूरी तो नहीं ............
par fir bhi maksad ham dhundhte hain....:)
behtareen na likhun to bhi ye to obvious hai:)
जीने के क्रम में मकसद मिल ही जाते हैं।
यदि असंतोष की भावना को लगन व धैर्य से रचनात्मक शक्ति में न बदला जाये तो वह खतरनाक भी हो सकती है।
सच कहा आपने ...जीवन तो जीवन ही है.....
बहुत सटीक और भावपूर्ण रचना,,,
बहुत से जीवन ऐसे होते हैं ... चलते हैं क्योंकि चलना है ... बिना मकसद के ... कुछ निराशा का भाव लिए ...
बहुत ही शानदार लगी ।
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