ये चुके हुए दिनों की दास्ताँ है
जहाँ चुक चुकी थीं संवेदनाएं
जहाँ चुक चुकी थीं वेदनाएं
जहाँ चुक चुकी थीं अभिलाषाएं
तार्रुफ़ फिर कौन किसका कराये
जहाँ चुक चुके थे शब्द
जहाँ चुक चुके थे भाव
जहाँ चुक चुके थे विचार
उस सफ़र का मानी क्या ?
एक निर्वात में गोते खाता अस्तित्व
किसी चुकी हुई डाल पर बैठे पंछी सा
न कहीं जाने की चाह
न कुछ पाने की चाह
न कोई कुंठा
न कोई दंभ
किसी भभकी हुई सिगड़ी पर
कोई लिख रहा हो प्रेमगीत
न अजान न प्रार्थना न गुरवाणी
समय के दुर्भिक्ष में फँसा
चुकने की कीमत अदा करता
कोई पीर पैगम्बर नहीं
कोई मुर्शिद नहीं
एक आम आदमी था वो
समय अपनी कौड़ियाँ वहीं फेंकता है जहाँ जमीन नम होती है
कि
चुकना समय की जीत का सबसे बड़ा पुरस्कार जो ठहरा
आओ जश्न मनाएं ...
डिसक्लेमर :
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इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
3 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 10 फरवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर ...
ये चुके हुए दिनों की दास्ताँ हैं
और सुख चुके दिलों की भी
सुन्दर शब्द रचना
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