मैं
दरिया हूँ
ना बाँधो
मुझको
बहने दो
अपने किनारों से
लगते - लगते
मत तानो
बंदिशों के
बाँध
मत बाँधो
पंखों की
परवाज़ को
मत लगाओ
मेरे आसमानों पर
हवाओं के पहरे
एक बार
उड़ान
भरने तो दो
एक बार
बंदिशें तोड़
बहने तो दो
एक बार
खुले आसमान में
विचरने तो दो
फिर देखो
मेरी परवाज़ को
मेरी उडान को
धरती आसमां में
सिमट जाएगी
आसमां धरती सा
हो जायेगा
और शायद
क्षितिज पर
एक बार फिर
मिलन हो जायेगा
19 टिप्पणियां:
एक बार
बंदिशें तोड़
बहने तो दो
एहसास बहुत खूबसूरत हैं
बन्दिशे तो तोड़नी ही होगी
phir dekho meri pervaaz ko... bahut hi achhi rachna...
अच्छी पंक्तिया की रचना की है ........
(क्या अब भी जिन्न - भुत प्रेतों में विश्वास करते है ?)
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_23.html
बंदिशों के
बाँध
मत बाँधो
पंखों की
परवाज़ को
मत लगाओ
मेरे आसमानों पर
हवाओं के पहरे
एक बार
उड़ान
भरने तो दो
--
--
पागल झरनों को मत,
संयत बाध तोड़कर बहने दो।
अपने अरमानों को मत,
बहशी दुनिया से कहने दो,
गुल गुलाब की तरह रहो,
और खिलो खूब बगिया में-
कोमल तन पर काँटों की,
कुछ मृदुल चुभन रहने दो।।
कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई
Bahut Sundar baav sanjoye aapne is sundar kavita me
वंदना जी बहुत ही अच्छी कविता !
बधाई !
"खुले आसमान में
विचरने तो दो
फिर देखो
मेरी परवाज़ को
मेरी उडान को
धरती आसमां में
सिमट जाएगी
आसमां धरती सा
हो जायेगा
और शायद
क्षितिज पर
एक बार फिर
मिलन हो जायेगा "... प्रेम और जीवन की कविता... बहुत ही खूबसुरती से कह रही है आप!
धरती आसमा में सिमट जायेगी ...... आसमा धरती सा हो जायेगा.... वह बहुत खूब..... मन मोह लिया आपके इस कविता ने.....
उडानों की ऊँचाइयों के सामने आसमान, पहाड़ और सागर नतमस्तक हो जायेंगे।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
bahot khoobsurat,wah.
बहुत ही अच्छी कविता
Haan Hhai! aaj Vandana ji ko dariya bn jane do' jaise "Ganga" bn gayi thi "Ganga Saagar". Usi prakar Vandana ji ab ho jayengi "Vandniya"........aur yahi to hamari kaamna hai, Shubh kamna hai----
गंगा एक नदी है
जो निकलती है गोमुख
गंगोत्री से और
आकर नीचे हिमालय से
हरिद्वार - प्रयाग - काशी होते हुए
ऋषि - मुनियों के कुटीरों का
स्पर्श - संश्पर्शन करते हुए ..
जा मिलती है - सागर से.
और बन जाती है - "गंगा सागर".
धारा प्रवाह अभिव्यक्ति के लिए बधाई !!
मत रोको ...
उड़ने दो इन्हें ...पंछी- सा
बहने दो ...नदिया- सी
मैंने भी लिखा था कुछ ऐसा ही ..संवेदनशील स्त्रियों की प्रतिक्रियां एक जैसी ही होती हैं ...!
बहुत सुन्दर ..उड़ान की अभिलाषा ..बंदिशों को तोडने की ख्वाहिश ..सुन्दर शब्दों में बाँधी है ...
बहुत खूब
सुन्दर एहसास
बहुत खूब...सुंदर रचना...बधाई
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